गद्य ::
ताला
रमण कुमार सिंह ■
एखन कोरोना वायरसक वैश्विक संकटकाल मे दुनिया भरि मे तालाबंदी क' देल गेलै। ई वास्तव मे एकटा अभूतपूर्व समय अछि, जखन कि पूरा केँ पूरा शहर आ पूरा देशक सभटा गतिविधि जकथक पड़ल छै, रोकि देल गेल छै। लसहरि रोग तँ पहिनहुँ बहुत होइत छल मुदा विज्ञान एतेक विकास नहि कयने छल, तें लसहरि रोग सँ बचाव खातिर लॉकडाउन सन अवधारणा सोझाँ नहि आयल छल।
मुदा पुरना लोक सभ सँ हम इहो सुनने छी जे एकटा एहनो समय छल, जखन हमर पुरखा लोकनि पहिने घर मे ताला नहि लगाबैत छलाह। भरिसक एकर ई कारण रहल होयत जे ताहि समय मे हुनका सभ केँ चोरिक डर नहि होइत हेतनि किएकि सभ्यताक आरंभ मे निजी संपत्तिक कोनो अवधारणा नहि छलैक। जहिया सँ निजी संपत्तिक अवधारणा समाजक सोझाँ अयलै, तहिये सँ संपत्ति केँ जोगाय केँ रखबाक मोह आकि डर मनुक्खक मोन मे उपजल हेतै। अपन पोथी 'व्यक्तिगत संपत्ति आ राज्यक उत्पत्ति' मे एंगेल्स कहैत छथि, जे धातुक संबंध मे जानकारी बढ़य केँ संग विकासक संभावना बढ़ि गेल आ व्यक्तिगत संपत्तिक लोभ मे पुरुष मे स्वामित्वक भावना प्रबल भेल। ओ जमीनक मालिक बनि गेल, गुलामक मालिक बनि गेल आ संगे-संग स्त्रीक मालिक सेहो बनि गेल। एंगेल्स कहने छथि जे संपत्तिक अवधारणाक विकासक बादे पुरुष लोकनि स्त्री केँ अपन संपत्ति बूझय लगलाह आ ओकर आचार-विचार आ व्यवहार पर तरह-तरह केँ प्रतिबंध रूपी ताला लगा देलनि। ई ताला भौतिक रूप मे कोनो यंत्र नहि छल बरू ई पुरुषक कुंठित वैचारिक तंत्र छल, जे स्त्री लोकनिक पएर केँ गछारि लेलक आ बहुत हद धरि एखनो धरि गछारने अछि। खैर, हमरा बुझने ताहि काल मे तालाक आविष्कार भेल होयत, खाहे ओ कोनो आन स्वरूप मे भेल हुअए किएकि डर अथवा असुरक्षाक भावने लोक केँ सुरक्षाक लेल प्रेरित कयने होयत। जेना कि कहलो जाइत छैक, आवश्यकता आविष्कारक जननी थिकै। आब कल्पना कयल जा सकैत अछि जे, जे लोक सभ ताला केर आविष्कार लेल उताहुल भेल होयताह, हुनका सभक मोन मे असुरक्षा आ भय केर भावना कतेक गहींर पैसल हेतनि।
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रमण कुमार सिंह |
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सांकेतिक छवि |
खैर, जाय दियौ, अहूँ सब कहबै जे ई छौड़ा कतय-कतय केँ खेरहा सुनबय लागल। कहू कोनो ताला पसिन्न आयल, नै पसिन्न आयल तँ कोनो बात नहि। हमर मालिक तँ दोकान पर छै नै, जे कहितियै, कोनाहितो गंहिकी के पटिया, खाली नै जाय दियै। ओना एगो बात कहू, पता नहि कहांदनि आइ-काल्हि किसिम-किसिम केँ ताला भेटय लागल छैक। एक दिन एकटा आदमी ताला खरीदय आयल छल अहीं सब जकाँ आ कहने रहय जे ओकरा एकटा एहन ताला चाही, जाहि सँ सबटा गियान आ सूचना केँ ओ बन्न करि कए राखि सकय। पता नहि ओ हमरा बताह बुझैत छल आ कि अपने मतिछिन्नू रहय, कहि नहि सकब। हम कहि देलियै, हमरा दोकान मे एहन ताला नहि अछि। फेर ओ घुरि गेल। ओ तँ चलि गेल मुदा हम बड़ी काल धरि सोचैत रहलहुँ, जे कि सांचे सभटा गियान आ सूचना केँ कोनो पेटार मे बन्न करि कए राखल जा सकैए! हमर कक्का तँ कहैत छलाह, जे गियान आ सूचना बिलहै खातिर होइ छै। ओकरा पेटार मे बन्न करि केँ नहि राखल जा सकैछ। मुदा आइ-काल्हि तँ ओकरो व्यापार चलि रहल छैक। सुनै तँ इहो छियै, जे जकरा लग जतेक सूचना छैक, ओ ओतेक सामर्थ्यवान लोक अछि आजुक जुग मे। फेर हमरा अपना गामक एकटा पंडीजी मोन पड़लाह, जे कहैत छलाह, जे शूद्र आ स्त्री केँ वेद नहि पढ़बाक चाही आ जौं धोखो सँ ओ सभ वेद सुनि लेलक तँ ओकरा कान मे शीशा गलाय केँ ढारि देल जाइ। एतबे नहि, हमरा गाम मे एगो माहटरनी रहय, ओकरा बरहमल मीटिंग-सीटिंग खातिर शहर जाइ पड़ैत छलैक, ओकरा मादे ऊ बुढ़वा पंडी जी कहैत छलनि, जे दुरि गेल तिरिया नित गेल हाट। गामक पंडीजीक गप मोन पड़ल तँ बुझायल, जे भरिसक ओ गहिंकी एहि तरहक कोनो तालाक नव संस्करणक पुछारि करय आयल होयत। हम तँ बेकारे ओकरा मतिछिन्नू बुझैत रहियै, ओ तँ बड़ चलाक छल आ हमहीं निरबुधिया साबित भेलहुँ।
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सांकेतिक छवि |
हम ओकरा किछु कहतियै, ओइ सँ पहिनहि ओ फेर बाजि उठल, एक दिन तँ एकटा अजीबे किसिम केँ लोक आयल छल तालाक पुछारि करैत हमरा दोकान मे। ओ कहलक जे ओकरा एकटा एहन ताला चाही, जकरा ओ लोकक अकिल पर लगाय सकय। हम तँ बाबू जीजीएमपी छी, हम कतय सँ ओकरा ओहन ताला दोकानक पता बता सकितियै!
हम ओकर बात बूझि नहि सकलियै तँ पूछलियै, रौ ई जीजीएमपी कोन डिग्री होइ छै रौ, कहीं एंटायर पॉलिटिकल साइंस सन कोनो डिग्री तँ नहि छियैक ई। ओ कहलक, धुर जाउ, अहूँ की चौल करै छी, बुझै नहि छियै, गाम-घर मे 'घीचि-घाचि के मैट्रिक पास' लोक केँ 'जीजीएमपी' कहल जाइत छैक। ओकर ई गप सुनि हम दुनू गोटे बहुत दिनक बाद ठिठिया के भरिपोख हँसलहुँ। फेर ओकरा कहलियै, बाउ, आइ तोरा कारणें बहुत दिन पर एतेक हँसलहुँ अछि। अच्छा बहुत बेर भेलै, आब जाइ छियौ, कोनो नीक, मजबूत मुदा सस्तोआ ताला छउ तँ देखा। ओ कहलक, जाह, जाय छियै, असली गप तँ कहबे नै केलहुँ, अंत मे भेलै ई जे ओहि गहिंकी केँ हम कहलियै, देखू अकिल बन्न करै केँ ताला बाजार मे छै कि नै, से ते हमरा नहि बूझल अछि मुदा एक गोटे कहैत छलाह, जे नेतालोकनि लोकक अकिल हरि लैत छै, तें अपने दिल्ली चलि जाउ, ओतय कतहुँ अकिल बन्न करै बला ताला भेटि जायत। सुनै छियै सरकारो डिजिटल लॉकर की लॉक बनेलकैए...। ओ आदमी कहलक, हैं ठीके कहै छें, आब दिल्लिये केँ बाट धरैत छी।
फेर ओ छौड़ा एकटा ताला हमरा सभ केँ देखौलक, जकरा ल' केँ हम सब घुरलहुँ मुदा भरि रास्ता ओकर गप मोन पाड़ि दुनू गोटे हँसैत रहलहुँ। अहूँ, सभक कोनो सपना, कोनो उमेद, कोनो सेहन्ता ककरो ताला मे बन्न अछि तँ ओकरा मुक्त कराउ, जेना हम अपन हंसी ओहि छौड़ाक गपक चाभी सँ मुक्त करेलहुँ। आ सहचेत रहब, जे कोइ अहाँ सभक अकिल पर ताला ठोकबाक तैयारी तँ नहि कए रहल अछि।
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रमण कुमार सिंह मैथिली-हिंदीक सुपरिचित कवि छथि। हिनक परिचय आ 'ई-मिथिला' पर पूर्व प्रकाशित कार्यक लेल एतए देखी : वसंत विदा भ' गेल अछि तत्काल ।
ताला
Reviewed by e-Mithila
on
June 20, 2020
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बहुत दिनक बाद एतेक सहज-सरस, सुंदर आ चित्रात्मक गद्य पढय लेल भेटल. रमणजीक एहि गद्य मे कतौ कोनो अवरोध नहि, कोनो भटकाव आ दोहराव नहि. हम जखन ‘ताला’ पढनाई शुरू कयलहुं तँ लागल जेना चिक्कन आ बिना फिसलन वला हाइवे पर सांय-सांय भागैत गाड़ी मे सवार छी. एहि गद्य मे बाजार मे ताला खौजेत लेखक तालाक बहन्ने समय आ देशकालक पूरा राजनीतिक आख्यान पाठकक सोझां राखि दैत अछि आ सैह थिक ई गद्यक विशेषता. कतेक सूक्ष्म आ तीक्ष्ण. तालाक दोकान पर ताला बेचय वला सेल्समैन बुझना में अबैत अछि जे कोनो युगद्रष्टा होइ. सेल्समैनीक संग ओ ताला बेचय वला छौड़ां कखनहु कोनो घाघ राजनेताक संग बुझना में अबैत अछि तँ कखनहुं कोनो दार्शनिक, कखनहुं तत्ववेत्ता तँ कखनहुं कोनो संवेदनशील लेखक-कवि जकां. एक्के व्यक्ति में एतेक रास गुण!
ReplyDeleteहं, ई गद्य पढलाक बाद एकटा भ्रम सेहो टूटल. जरूरी नहि अछि जे कवि सिर्फ कविते टा सुंदर लिख सकैत अछि, कवि कविताक संग-संग सुंदर गद्य सेहो रचि सकैत अछि. रमण कुमार सिंह में एकटा समर्थ गद्यकार आ कथाकार सेहो छिपल अछि.