अछि सलाइमे आगि बरत की बिना रगड़ने?

कविवर सीताराम झा

मातृभाषानुरागी संस्कृत-मैथिलीक विद्वान कविवर सीताराम झा आधुनिक मैथिली कविताक विकास पथ पर परम्परा ओ आधुनिकताक संगम बिन्दु पर संतुलन बनेने अपन काव्य प्रतिभा सँ नवीन पथक आह्वानक कएलनि। आजुक समय मे विश्व साहित्यक कोनो भाषाक पद्यक बात करी तँ ओ हिनका मोनक भीतर जे विचार अन्तर्निहित रहनि ताहि सँ आगू परिवर्त्तनक पथ पकड़ि कए चलि रहल अछि। मुदा जँ आइयो हम चाही जे किछु कविक कविता, मुक्तक मोन पाड़ी तँ सहजे विद्यापति, चन्दा झा आदिक बाद हिनक कविता, मुक्तक उचरि जाएत। हिनक समर्पण अपन मातृभाषा लेल रहनि तेँ हिनक पद्य मे मातृभाषा प्रेम, राष्ट्रप्रेम आदि हठाते झलकि उठैत छनि जे यथार्थवादी दृष्टिकोण, उदारवादी दृष्टिकोण आ व्यंग्यात्मक शैली मे गढ़ल-गाँथल शब्द-भाव मानव अस्तित्वक लेल संघर्षक स्वर, आत्मरक्षाक स्वर, समाजक- सुधारक प्रति भाव, मनुक्खक चारित्रिक प्रगतिक प्रति निष्ठाक भाव, प्रेम-अनुशासनक प्रति सच्चरित्रता आदि प्रखरता सँ अख्यास कएल जा सकैछ। कविवर मैथिली साहित्य मे गद्य ओ पद्य दुनू मे लिखलनि मुदा गद्यक कोनो प्रकाशित पोथी देखबा मे नहि आयल। कविवर सीताराम झाक मुक्तक एखनहुँ लोकक कंठ मे बसल अछि। ओ प्रचुर मात्रा मे मुक्तक लिखलनि, से विभिन्न भाव-भूमिक केर ओ सभ तरहेँ परिपक्व। सीताराम झा सर्वसाधारणक कवि छथि, जनिक रचना मे विविधता अछि, विश्वसनीयता अछि, सहजता अछि,  जकरा पढ़ि कए पाठकक हृदय अवश्य गुदगुदा सकैए ओ गुदगुदी यथार्थक उद्घाटन लेल व्यंग्य हो, वा अस्तित्वक रक्षा लए आह्वान।



|| कविवर सीताराम झाक किछु मुक्तक आ काव्यांश ||


श्री मिथिला

छथि मिथिला  सबदेश मे,  सुयश-धर्म-धन-धाम।
हरल जनक-जड़ता जनमि, जगजननी जहि ठाम।।


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मैथिली (हरिगीतिका)

पढ़ि लीखि जे नै बजैछ हा ! निज मातृभाषा मैथिली।
मन  ह्वैछ  झुटकी सौँ तकर  हम कान दूनू  ऐँठि ली।।
एहना  कपूतक जीह  छाउर लेपि  सटदै  खैँचि  ली।
पर खेद जे  अधिकार ई  हमरा नै  देलन्हि  मैथिली।।


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बुड़िबक

राखू कान्ह चढ़ाय वा, घिसियाबू धै कान।
सतत बूड़ि बकड़ी करै, भैँ भैँ एक समान।।


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पशु

भोजन मैथुन निन्द भय, सब गुन मनुज-समान।
हे पशु ! तूँ तप कोन कय, पौलह पुच्छ विखान।।


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धनकैँ बाजै घाँटी

करू  सुकर्म  कुकर्म  करू  वा, देस बसू वा  ढ़ाका।
निश्चिय आदर सब थल होएत, हाथ रहत जौँ टाका।।
बसनहिँ  की  होयत  मङरौनी, पिलखबार वा राँटी।
कुल  गौरव  की  धो  धो  चाटब, धनकैँ बाजै घाँटी।।
पैघक हो अनुचितो कथा तौँ सब क्यो पास करै छी।
उचितो कथा दीन बाजथि तौँ, सब उपहास  करै छी।।
छी कहैत हुनकहि जे, 'चुप रहू बहुत कथा नहिँ छाँटी।
ग्राहक  गुणक  रहल नहिँ जगमे, धनकैँ बाजै घाँटी।।
यदि गरीब पाहुन आबथि तौँ, कयौ नहिँ खोज करै छी।
ततहि धनीक अबै छथि तौँ, बस बड़का भोज करै छी।।
दही दूध घृत  मांस अबै  अछि, रहु सौरा ओ काँटी।
उठल  पुरातन  रीति जगत  सौँ, धनकैँ बाजै घाँटी।।
पढ़ि पाथर लिखि लोढ़ा होयब, हाथ रहत जौँ खाली।
कतहुँ सभामे किछु बाजब तौँ, विहसि देत सब ताली।।
विद्या विनय विवेक बुद्धि बल, सब गुन गोबर माँटी।
बिनु अर्थक होइत अछि केवल, धनकैँ बाजै घाँटी।।
चलथि धनिक बाहर तौँ माँथक, पाग लगै छन्हि भारी।
तदपि विचार करथि नहिँ मनमे, बनि अमीर अधिकारी।।
बोझ  गरीबक माँथ  लदै छथि, एक  तहु पर आँटी।
क्यौ नहिँ दीनजनक दुख जानै, धनकैँ  बाजै घाँटी।।
सम्प्रति  बहुतो  छुद्र धनी  सब, निर्धन कैँ  सतवैये।
सबहिक  सतत  दृष्टिगोचरमे, ई  सबठाम  अबैये।।
शिक्षा तदपि धनीककैँ दी नहिँ, दीनहिँ जनकैँ डाँटी।
उचित विचार उठल सब थलसौँ, धनकैँ बाजै घाँटी।।
जकरहि  हाथ टका  दश  केवल, तकरे मान करै छी।
छोट थीक की पैघ तकर हम, किछु नहिँ ध्यान करैछी।।
खाली हाथ  सासुहुक हो तौँ, तनिकहु  बाढ़नि झाँटी।
सबविधि दुख निर्धन कैँ सखि हे ? धनकैँ बाजै घाँटी।।


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घर-घर एक्के लेखा

छल एतबा दिन भरम परम जे, करम धरम हम त्यागल।
कैलहुँ  नहिँ  उपकार  परक छी, अपकारहि मे लागल।।
हमहीँक्ष टा  नहिँ अधम  आब ई, खीचि कहै  छी  रेखा।
चढ़ि  चढ़ि  ऊपर  देखल  तौँ, घर  घर   एक्के  लेखा।।


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सनातनी सँ

थिकहुँ सनातन धर्मक रक्षक, सब पर दया रखै छी।
फूकि धरै छी पैर तखन तँ तिन तिन ठाम मखै छी।।
करौ प्रचार  इसाइ अपन वा सब थल बढ़ौ समाजी।
मठ  मे धोबि  पैसओ वरू "तैयो नहि किछु बाजी"।।


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ज्ञातयौवना

सङ्ग सहेलिक बैसलि सुन्दरि भूषण झाँपि उघारथि कौखन।
मन्द  हँसैत खसैत कपोलक ऊपरसौँ  लट टारथि कौखन।।
झारथि सारिक धूरि तथा उठि फूजल नीबि सम्हारथि कौखन।
दृष्टि सखीक बचाए पयोधर आँचर टारि निहारथि कौखन।
मृदुहास-सुधारससौँ सिहबैत सखीबिच  बैसि युवाजनकैँ।
भृकुटीक विलासकलाछविसौँ लजवैत मनोजशरासनकैँँ।।
करसौँ लट झारि सम्हारि तथा दरशाय सुवर्ण छटा तनकैँ।
निज केश बन्है छथि चन्द्रमुखी कि बन्है छथि ई हमरामनकैँ।।


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अथाह

पिसुन, पुरोहित, पाप, पुनि पेट, पयोधि अपार।
कैनहु  पुनि-पुनि  पूर  ई  पुरय  न पाँच  पकार।।


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नूतनपण्डित

सीटथि बूट कमीज छड़ी पगड़ी पुनि जेबघड़ी लटकाबथि।
सटिफिकेटक गेंट देखाय  सदा नवका सबकैँ भटकाबथि।।
पूजित भेषहिँ सौँ सबठाम  घड़ी पल लाटहुकैँ अँटकाबथि।
नूतन पण्डित लक्षण किन्तु सभा विच नाङरिकैँ सटकाबथि।।


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बूड़ि

जानथि घोड़िक घास करै नहिँ गौरव खूब रखै छथि लूरिक।
वृत्ति समीपक छाड़ि गुमानहि आस करै छथि जे पुनि दूरिक।
जूड़न्हि  ने घर  मे फुटहा, पर  बाहर मौज उड़ाबथि पूरिक।
बैसल व्यर्थ उड़ाबथि गप्प, सदच्छन ई थिक लच्छन बूड़िक।।


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पाजी (चौपाइ)

किछु उपकार परक नहि मानै, माए बाप कैँ तृण सम जानै।
छन मे रूष्ट छनहि हो  राजी, सदा विचारहीन थिक पाजी।।


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उत्पाती

धयल उखाड़े बापक थाती, खाए चहै अछि अनको साती।
घरक  उजारै  कोरो  बाती, फोड़ै   बासन  से  उतपाती।।


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उकाठी

सभाबीच खटखटबै काठी, सबटा खुरलुच्ची सन ढ़ाठी।
बूढ़क छीनि पड़ाए फराठी, से जनमे कहबैछ उकाठी।।


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लण्ठ

सिनुरक  ठोप  फुलेल  लगाए, मौगिक मेला  मे घुसिआए।
हाथ घड़ी ओ अधचन कण्ठ, हँसि हँसि बाजै से थिक लण्ठ।।


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अकान

कही पानि तौँ लाबै पान, पठबी आङन जाए बथान।
लाख बुझौनहु सुनै न कान, ई लक्षण सौँ बुझू अकान।।


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शङ्खिनी

केश छत्ता जकाँ माँथ हत्ता जकाँ,
आँखि खत्ता जकाँ दाँत फारे बुझू।
बोल रोड़ा जकाँ चालि घोड़ा जकाँ,
पेट मोड़ा जकाँ वा बखारे बुझू।।
छूति ने लाज सौँ सङ्ग कै पाज सौँ,
नित्य सत्काज सौँ तौँ उधारे बुझू।।
राक्षसी ढ़ंङ्ग टा सौँ करै तङ्ग टा,
शङ्खिनी सङ्ग टा तौँ संहारे बुझू ।।


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चन्द्रफल

सनमुख दहिन सुखद थिक चान, वाम पृष्ठ मे दुखक निदान।
सनमुख  चन्द्र हरथि  सब दोष, जथा मृगा कैँ सिंह सरोष।।


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मनक शुद्धि मे विशेषता

ने  नक्षत्र जोग  तिथिवार, ने लग्नादिक  करू विचार।
व्यर्थ तकैछी पोथी पतरा, हृदयशुद्धिसँ सब खन जतरा।।


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भाषण-पद्य

निज वाणी कैँ छोड़ि रटै अछि जे परभाषा।
कीर जकाँ से मानु करय परवश अभिलाषा।।
से थिक पशुक समान करय जे परक आस टा।
दूधक बदला पाबि खुसी दुइ मुठी घास टा ।।
पाबि मनुष्यक देह  रहब जा घाड़ खसौने ।
बनि कायर पुनि अपन पूर्वजक नाम हँसौने ।।
तावत दुस्मन  दशो दिशा सौँ  रहत दबौने ।
सुख स्वतन्त्रता हेतु रहब  एहिना मुँह बौने ।।
पायब किछु अधिकार कतहु की बिना झगड़ने ?
अछि सलाइमे आगि बरत की बिना रगड़ने?
बिसरय जे निज रूप तकर जग मे की सेखी ?
बकड़िक  डरै पड़ाय सिंह सरकस मे देखी॥
जननि जानकी जन्मभूमि जन्माभिमान अछि ।
याज्ञबल्क्य ओ जनक भूपतिक खानदान अछि ।।
के गुन गौरव ज्ञान मध्य मिथिला समान अछि ।
विद्या विभव विवेक बुद्धि बल विद्यमान अछि ।।


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कविवर सीताराम झा (16.01.1891 - 15.06.1975)'क प्रस्तुत काव्यांश, मुक्तक आ प्रस्तुति आलेख एतय नारायण झाक सौजन्य सँ प्राप्त भेल अछि।  नारायण झा मैथिलीक युवा पीढ़ी सँ सम्बद्ध कवि-लेखक छथि। प्रतिवादी हम (कविता-संग्रह), अविरल-अविराम (कविता-संग्रह), निबन्धमालिका (निबन्ध-संग्रह) हिनक प्रकाशित कृति छनि। संग्रह प्रतिवादी हम लेल साहित्य अकादमी युवा पुरस्कार सँ सम्मानित छथि। हिनका सँ narayanjha1980@gmail.com पर सम्पर्क कएल जा सकैत अछि।  एहि प्रविष्टि मे प्रयुक्त कविवरक दुनू चित्र, हुनक परपौत्र सुभाष झाक सौजन्य सँ प्राप्त भेल अछि।
अछि सलाइमे आगि बरत की बिना रगड़ने? अछि सलाइमे आगि बरत की बिना रगड़ने? Reviewed by emithila on अप्रैल 09, 2020 Rating: 5

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