|| कर्ण संजयक किछु कविता ||
१). गिद्ध सँ भरल आकाश
(सन्दर्भ कलकत्ता रेपकांड)
आइ फेर सँ कान मे तूर–तेल ध’ क’ सुति रहल छै कलकत्ता
मर’ सँ पहिले मरि गेल छै लोक
शायद
मरल लोकक बीच मे
ओ चिचियाइत रहलै जोर-जोर सँ
कनैत रहलै
हुकरैत रहलै
मुँह तकैत रहलै बकर-बकर
गिद्ध जकाँ नोचैत रहलै देह
नढ़िया जकाँ गिधनैत रहलै
आँखि सँ चुबैत रहलै खून
योनि सँ बहैत रहलै वीर्य
पराजित होइत रहलै प्रतिरोध
खण्डित होइत रहलै शील
ओ करैत रहलै बलात्कार
देहक माटि सँ बलात्कार
देहक पानि सँ बलात्कार
देहक अग्नि, वायु, आकाश सँ बलात्कार।
गिद्ध सभ सँ भरल आकाश मे
दिना–दृष्टि बिका रहल छैक मनुख आ मनुखक काँच माउस
ओकर कोँढ–करेज, किडनी, फेफड़ा सभ
आइ–काल्हि
मनुखक भेष मे घरे–घर परिकल छैक भेड़िया सभ
मोमिता नै छैक पहिले आ अन्तिम शिकार
संवेदना मरैत समाजक मुँह दुसि रहल छैक
सेमीनार हाँल मे फेकल निर्वस्त्र बेटीक लाश
समस्त सभ्यताक अतृप्त भोगक लाश।
पोस्टमार्टम रिपोर्टक प्रतीक्षा मे मुर्दाघरक चौखटि पर स्वयं ठाढ़ छैक मृत्यु
चश्मा पोछि क’ देखियौ
सुतल छै पुलिस आ सुतल छै दरोगा साहेब
नीन्द मे चलै छैक सरकार आ सरकारी अस्पताल।
उतारि लिय आकाश मे टाँगल सूर्य
मिझा दियौ सबटा डिबिया आ गोसाउनि घरक दीप
बुता दियौ सड़क–बत्ती आ लैम्पपोस्ट सभ
बीछ लिय एक-एकटा भुकभुकाइत तारा सभ
आइ अन्हारक विजयोत्सव छैक
मुँह मे कारी–चून लगा क’ हारल नटुआ जकाँ नाचि रहल छैक शहर
भरल रङ्गमञ्च पर ठाढ़ समय, बिसरि गेल छैक जीवनक संवाद
बेटीक भार उघैत स्त्री देह मे फुला गेल छैक पलाश
आ पलाशक आगि मे सराबोर भेल बरमहल वृक्ष सभ
गढ़ि लेने छैक आगिए सन लाल–लाल पोछल-पोछल देह
झहरैत फूल सन देह
हरियर पात सन देह
वर्षाक बूँद सन देह
चाननक सुगन्ध सन देह
ढोलकक थाप सन देह
मृत्युक धाप सन देह।
आबय जाओ
एहि मृत्युक मौन अवधि मे
सुनगैत चिताक छाउर सँ
अपन-अपन मस्तक पर
लगा लिय कलंकक टीका
जतय लोक लगबैत अछि चाननक ठोप।
२). पूर्वजक कोटक टूटल बटन सभ
कनिक आधा सँ बेसी कनिक आधा सँ कम
मरल छैक मिथिला
मरल छैक एकटा युग–जीबैत सभ्यता
अपन-अपन सत्ता आ स्वार्थक मादे
छाती पर चढ़ि
शोणित मे कलम बोरि क’ लिखल गेल छै कारी दस्तावेज
जकर
रेखा-रेखा मे विभाजित भेल छैक मनुख
मनुख-मनुख मे विभाजित भेल छैक सीमा
सीमा-सीमा मे विभाजित भेल छैक देश
पीजुयाएल घाव जकाँ टभकैत
छाती मे भाला जकाँ भोंकैत
सुगौली सन्धिक चिता पर राखल छैक लाश
हमर लाश, अहाँक लाश, मैथिलक लाश
अखण्ड मिथिलाक लाश।
आब मनुख नहि मरै छैक
मरै छैक मनुखक देह मे जीबैत देश
मरै छैक खण्ड-खण्ड मे जीबैत भूगोल
मरै छैक सीमा मे सीमित छटपटाति लोक
मरै छैक भरि देह जीबैत स्वतन्त्र विचार।
मिथिलाक सारा पर जन्मल किछु अनेरुआ तुलसी गाछ सभ
सब दिन साँझ मे दीप जारि
एक-एकटा जातिक नाम पर
करैत रहै छै मन्त्र–पाठ आ महामृत्युंजय यज्ञ
मैथिलीक कोखि सँ
भाषाक नाम पर जन्मल किछु दु–मुँहा साँप सभ
छुच्छे बोकरैत रहै छै विष।
बेंग सन फुलि क’ मोटायल तानाशाहक राज मे
गिरगिट सभ मनोनित भेल छैक सभासद
मन्त्रीक भारी ढोति मोटका-मोटका मूस सभ
अपन जाँघ केँ देश बुझि
कतरि रहल छैक
सीमा सँ ल’ क’ सिंहदरबार तक
वन सँ ल’ क’ बालुवाटार तक
मरघट सँ ल’ क’ अँठिकटार तक।
चिल्हकाउरि जकाँ
करेज मे भूगोल सटने समय
इतिहासक देह मे जमल धूरा–गर्दाकेँ झारैत
क्रान्तिक नामपर
अपने हाथे
टाँकि रहल छैक
पूर्वजक कोटक टूटल बटन सभ।
३). देह मे फुलाइत गुलाब
हमरा मोन अछि
छोट छोट सानिध्य आ सहवासक
बनाएल क्षितिज पर
कतेक आकाश बनैत रहलै आ कतेक आकाश टुटैत रहलै
प्रिय मित्र!
हमरा वएह आकाश चाही
हमर हिस्साक आकाश
हमर देहक आकाश
ओकर देहक आकाश
हमर अपन आकाश
जतय हम अपन सूर्य सँ
अपन धरती पर लिखैत रहब कविता
अपन देह केर काँटक कविता
ओकर देह केर गुलाबक कविता।
एकटा टटका लाल गुलाब
एखनो राखल रहै छैक ओकर सिरहानी मे
ओकरा बड़ प्रेम छै लाल रंग सँ
ओकर म्लान मुँह
बिजली सन चमकि उठै छैक लाल रंग देखि क’
सब सँ बेसी लाल गुलाब सँ
लाल रिबन, लाल अलता, लाल लिपिस्टिक आ लाल मेँहदी प्रिय छैक ओकरा
आ प्रिय छैक देहक लाली सँ लाल होइत, हमर देह मे सन्हियायल ओकर देह।
विगत सँ वर्तमान धरि
धरती सँ आसमान धरि
प्रेमक विरुद्ध ठाढ़ कएल गेल छै अनेक क्षुद्र ब्रह्माण्ड सभ
नव वसन्तक कोँढि सभ केँ खोंटि खोंटि
रक्त सँ रंगल दुनु हाथक छाप तर मे
दबायल गेल छैक
ओकर अवशेष, किछु पहिरल कपडा आ नग्न चित्र सभ
प्रेमक असामयिक मृत्यु पर
अन्तिम प्रार्थना सँ पहिले
स्वर्ग दिस उठल हाथ सभ
निर्रथक भीज रहल छैक।
अपन अन्तिम यात्राक मार्ग मे
देवताक बिचला पाँति मे मनुख बनि बैसल ओ
छोड़ि जा रहल छैक दुनु आँखि
आ आँखि मे फुलायल प्रेमक फूल सभ
वएह फूल सभ मे जीबैत ओकर देह
बनि गेल छै एकटा विशाल फूलक गाछ
प्रेमक ओस चुबैत गाछ
प्रेमक सुगन्ध बहैत गाछ
प्रेमक फूल झहरैत गाछ
वएह गाछक छाहरि तर
फुलाइत रहै छैक
हमर कविता मे गुलाब
हमर गीत मे गुलाब
हमर देहक चौखटि केबाड़ सभ मे गुलाब
हमर सुखक गुलाब हमर दुःखक गुलाब
हमर वर्तमानक गुलाब ओकर अतीतक गुलाब।
४). शेष सबटा भ्रम थिक
जीबाक प्रतिस्पर्घा मे
औना रहल जीवन केँ
भूख दूरहि सँ
दए रहल छै टिटकारी।
जीवन मे उठैत सहस्रो आगिक धधरा मे सँ
किछु चिनगी सब बटोरि
अपन-अपन स्वार्थक चुल्हि पर
अतृप्त क्षुधाक भक्ष्य खातिर
अपने हाथे डाहैत रहैत छैक
मनुषे केँ मनुष।
देह केँ काठ बना
सबटा शोणित चुसि
सगबगा रहल मोटका-मोटका जोंक सभ
लोभे लपलपाति लाल-लाल जीभ सँ
देवार जकाँ
चाटि लेबय चाहै छैक माउस सँ ल’ क’ अस्थिमज्जा तक
ब्लैकहोल जकाँ
संपूर्ण अस्तित्व तक केँ
घोटि जाए चाहैय छैक
मनुषे केँ मनुष।
कतेको पराकम्प गेल छैक एहि देह मे
देखलापर
माटिक देवाल जकाँ फाँक फाँक फाटल छैक छाती
माथक टेटर सब मे जनमि गेल छैक गाछ
हाथक ठेला सब मे बहैत रहै छैक गन्हाएल पानि
रीढ़ तक मे पसरि गेल छैक कुरियैनीवला दिनाय
बिन खेनहे दिन–दिन मोटाइत एहि शरीरकेँ अकानैत रहै छैक नव गिद्ध सभ
आँखिक नोर सँ निरन्तर भीजैत भीजैत सड़ि गेल छैक देहक त्वचा सभ
आब तँ
रोजगारी विज्ञापनक पोस्टरबॉय बना साटल जाए छैक बडका बडका होर्डिग बोर्ड सब मे
शहरक देवाल सभ मे।
घबहा कुकुर जकाँ अपने देह केँ नोचि-नोचि
झारैत रहै छैक सड़लाहा पिलुआ सभ
आनक मूँहथरि सँ ल’ क’ अँठिकटार तक
घरक छुतहरि सँ ल’ क’ डीहबार तक।
शून्यता भरल एहि जीवन मे
भुख चटैत देहक अक्षर सब
दुख पढ़ैत देहक शब्द सब
मृत्यु केँ जीबैत देहक पाँति सब
सत्य छैक
शेष सबटा भ्रम थिक।
५) सझिया रङ्गमञ्च
ओ एकटा काल थिक
समय लिखि रहल छैक पटकथा
काल आओर मनुषक अर्न्तसम्बन्ध केँ
एकटा सझिया रंगमञ्च पर
तैयार भ’ रहल छैक नाटक
जकर, सूत्रधारक भूमिका मे
ठाढ़ कएल गेल छी
हम स्वयं
अदृश्य हाथक निर्देशन मे
स्वःस्फूर्त अभिनय सँ परिभाषित जीवनक चित्र मे सँ
भरि बाकुट रंग, आकार, शब्द बटोरि क’
इतिहास लिखि रहल छैक, भविष्यक जोड–घटाओक योगफल।
मृदंगक तालपर
प्रवेश गान गबैत
नृत्य करैत गणिका सभ केँ
प्रतीक्षा छैक नायकक
जकर आगमनक बाद
ताली सँ गड़गड़ा उठलैए सभागार
दूर नेपथ्य सँ
राजाक आगमनक
पूर्वहि भेल छैक आकाशवाणी
स्वांग रचि रहल बिपटा सभ
प्रहसनक मादे
कठपुतलीक नाच जेना
नेतृत्व क’ रहल छैक नया–क्रान्ति केँ
जुलुस मे शामिल किछु समकालीन नपुंसक सभ
आन्दोलनक नाम पर क’ रहल छैक आत्महत्या।
विष बोकैरैत एहि युग मे
रङ्ग आ प्रकाश केर संयोजनक दृश्य जकाँ
कखनो इजोत तँ कखनो अन्हार मे
क्षणिक जीवन जीबैत मृत्यु–पात्र सभक चिता पर
फेर सँ
जनमि क’ ठाढ़ भेल छैक रङ्गमञ्च
नितान्त
फरक रङ्ग, फरक दृश्य आ फरक भूमिका मे।
६). कनि जी लए छी आ कनि मरि जाए छी
बस
एक राति बाकी छैक
शायद अन्तिम राति
चाँग लागल फौतिक लहसरी देखि
हिरोशिमाक सभटा पीड़ा सन्हिया गेल अछि देह मे
देबालक ओहि पार
घात लगने रक्त–युद्ध–पिपासु सभ
सुनगैत बारुदक ढ़ेरी पर टँगने छैक टटका लाश
सूँघि रहल छैक
जरैत मनुख गन्ध
अपने कौलिक सभहक रक्त जरबाक गन्घ
जे कहियो ओकर विगत छलै आइ वर्तमान छैक
हेँजक हेँज कैमरा सभ गिद्ध जकाँ नोचि रहल छैक जीबते देह सभक सामाजिक संजालक वालपर
आँखि मे घृणा भरि भरि क’
शब्द मे रक्त बोरि बोरि क’
लिखल जा रहल छैक मृत्युक जीबैत युद्ध कथा
आउ हम सभ एक बेर फेर सँ
युद्धक बिचला आँगन मे ठाढ़ भ’ क’ कनि जी लए छी आ फेर सँ मरि जाए छी।
जन्म आ मृत्युक मध्य एहि फाँक समय मे
अँकुराति असंख्य सपना सभ मे
जन्मैत रहै छैक
नव जीवनक छोट-छोट आँखि सभ
श्मशान घाट मे चिता पर चढ़ाओल फूल, माला, सरर–धुमन, चन्दनक आगि मे
धू धू क’ जरैत देह सँ
गमकैत रहैत छैक जीवनक गम-गम सुगन्ध
आब तँ
मुर्दाक बजार मे
सितुआ मे भरि-भरि क’ बिका रहल छै जीवन
फेर सँ शुरु भेल छैक
मनुखक प्रतिमान गढ़बाक क्रम
देह पर ताम–तुलसी, तील–जौ आ गंगाजल छीट क’
जीवनक अनन्त यात्राक यात्रा मे
किछु समय हमहुँ बेसाहि लेने छी।
विश्व रंगमञ्चपर
मनुख–मनुख आ देश–देश खेल रहल शक्ति राष्ट्र–सभ
उठौने छैक समदाओन
एकटा मृत्यु गीत
मानवता मरबाक गीत
राष्ट्र मरबाक गीत
देश मरबाक गीत
फलस्तीन आ यूक्रेन सन मरबाक गीत।
मुदा
मर’ के चाहै छै ?
मृत्यु-उत्सव मनाब’ के चाहै छै ?
जीवन सँ सुन्दर छैक कोनो जीवन ?
जीवन मे उठैत
तमाम अनुत्तरित प्रश्न सभ पर
ठाढ़ कएल गेल छैक जीवन्त प्रश्नचिन्ह
कि मृत्युएटा लए होइ छैक मनुखक जन्म ?
कि जन्मेटा लए होइ छैक मनुखक मृत्यु ?
आउ हमसभ एकबेर फेरसँ
युद्धक बिचला आँगन मे ठाढ भ’ क’ कनि जी लए छी आ फेरसँ मरि जाए ।
७). शब्द, सभ्यता, लिपि आ किताब
बेर-बेर के
ठोकर सँ पाथर भेल जीवन मे
शून्य सभ ल’ रहल छै आकार
पीठ पाछा कएने स्त्रीक बिचला देह सँ
चुबैत रक्त आ पसेनाक गन्घ सँ
भीज रहल छैक
मनुखक अस्तित्व ।
दिशा के दुनु पार
आँखि सँ जीवन सीबैत हाथ सभ
आगि पीबि पीबि क’ रहल छैक गर्भधारण
पेट मे
सुखद स्मृति सब केँ सहेजने
रहि रहि क’
चिकरि रहल ओकर दुःख सभ
भूखल आकाश मे
सपनाक
तारा बनि टिमटिमा रहल छैक।
स्वर्ग मे पहिर’वला जुत्ता पहीर क’
लाल ग्रहक ओहि पार सँ आयल
अनचिन्हार चित्र मे सँ किछ मनुख सब बीछ क’
पूर्वज सभक चिता केँ अन्तिम पाँति मे
कएल गेल छैक ठाढ़
जतय सँ कहियो उठान भेल रहै
शब्द
सभ्यता
लिपि आ
किताब।
•••
कर्ण संजयक कविताक निहितार्थ मे समकालीन विद्रूपताक प्रति स्वाभाविक आक्रोश, पाखण्ड सँ पिचाएल समाजक उन्नतिक आग्रह, रोटिक संघर्ष मे ओझराएल मनुष्यक उत्थानक आकुलता आ सांस्कृतिक प्रतिमान केँ जोगएबाक स्पृहाक गुम्फन अछि। संजयक कविता समकालीन चेतनाक संवाहक तँ अछिए संगहि ऐतिहासिक तथ्य सभक पुनराववलोकनक आग्रही सेहो अछि। संजयक कविताक अस्तित्वादी दृष्टिकोण मनुष्यक दैनिन्दनीक संघर्ष केँ संबोधित करैत शोषित आ वंचित सभक आशा आ अधिकारक पक्ष मे ठाढ़ होइत अछि आ समकालीन कविताक उद्देश्य तथा कवि दायित्वक सम्यक निर्वाह सेहो करैत अछि।
कर्ण संजयक कविताक वैचारिकी स्पष्ट अछि। संजय अपन कविता मे शोणित सँ धरतीक लाल होएबाक समय मे गुलाबक लालिमा केँ जोगएबाक स्पृहा रखैत छथि। समय सँ निधोख संवाद करैत, मानवीय संवेदना सँ ओतप्रोत संजयक कविताक संरचना कनेक काँच होइतहुँ अपन वैचारिकी मे पूर्ण सिद्ध अछि। समकालीन मैथिली कविता मे अधिकांशतः नवागन्तुक कवि सभक प्रवेश जाहि वैचारिक अस्पष्टता आ भाषिक कृत्रिमता सङ्ग भए रहल अछि कर्ण संजयक कविता अपन वैचारिक प्रतिबद्धता, संवादक प्रखरता आ सम्प्रेषणक सहजताक कारणेँ ताहि सँ पृथक रूप सँ रेखांकित कएल जाए सकैत अछि।
संजय मैथिली कविताक युवा पीढ़ीक उदीयमान कवि छथि। संजय सम्प्रति विराटनगर मे रहैत छथि आ आजीविकाक लेल एकगोट विनिर्माण उद्योग सँ आबद्ध छथि। ई-मिथिला पर कविता प्रकाशनक एहि प्राथमिक अवसर पर कर्ण संजय केँ हुनक काव्य चेतनाक उत्तरोत्तर प्रगतिक शुभकामना। कर्ण संजय सँ karnsanjay@gmail.com पर सम्पर्क कएल जाए सकैत अछि।

बहुत सुंदर कविता सभ.
जवाब देंहटाएंसमकालिन मैथिली कविता के बेजोड प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंखूब बढिया।
कर्ण संजय जी के पहिल बेर पढ़बाक मौक़ा भेटल। बहुत सुंदर आ वैचारिकि स्पष्ट अछि कविता सभक। कवि के बहुत रास बधाई। ई मिथिला के धन्यवाद एहि सुंदर प्रस्तुति लेल।
जवाब देंहटाएंश्री कर्ण संजय जी कें सात गोट कविता बहुत नीक लागल अछि❤ मातृभाषा कें प्रति समर्पित छथि! नव नव सृजन करताह से पूर्ण आशा अछि! हार्दिक शुभकामना कें संग स्नेहाशीष❤
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