|| आदित्य कृष्णक दस गोट कविता ||
1.देखलहुँ मुदिता यै, मधुग्राम
देखलहुँ मुदिता यै, मधुग्राम!
पुष्प जनित कनकद्रव पूरित,
यूथबद्ध पदाति-दल पोषित
श्रम-विभाग सिद्धान्त रहैत—
रानी धरने परिधान,
देखलहुँ मुदिता यै, मधुग्राम!
श्रमिक देश मे श्रम अपजस अछि
भनसियवा अपने भूखल अछि
रानी मदन विरत मधु जीमथि
भृत्य-नृत्य हुनकर रञ्जन अछि
थिर अछि ग्राम, सुतल अछि जनता
रानी केर जय चारू ठाम
गउँवा की, ओझो बताह—
यै, करब ककर सम्मान?
देखलहुँ मुदिता यै, मधुग्राम!
मुदिता, आउ चलब ओहि ग्रामे
सूतब, पढ़ब, घुरब सबठामे
खीचब नौका बागमती मे
बीच चंद्रिका करब सनाने
सरि-तट तोहर फुलवारी, आ—
नग्न देह भीजल अछि जल मे
फुलवारी मे तन्त्र जगायब—
करब ने एकहुँ काम।
देखलहुँ मुदिता यै, मधुग्राम!
"रहब एतय हम बैसल सदिखन-
विदा हमर ऋतुचक्रक दूषण
दुःख-कुङ्कुम-रज बीछि हृदय के
करब सदा ओहि मधु सँ पोषण"
सुनल मुदा, नहि अनृत एहिसन—
बिहुँसि उठल दुनु कान।
देखलहुँ मुदिता यै, मधुग्राम!
2.आखाढ़ मासक नून
अखाढ़क रौद मे पड़ल नग्न,
पसेनाक अर्क सँ बना रहल छी हम— नून।
हमर बिलाय आबय छै,
चाटय छै हमर वक्ष, भुजा, कण्ठादिक—
जेना ओ मधुपर्क रहय,
आ घुरि जाय छै अपन शावकवृंद लग।
हम रौद मे झरकि केँ—
बज्जर भऽ गेल छी,
आँखि भऽ गेल अछि पाथर,
मुदा पड़ि रहय छी जा कऽ
दैनंदिन, बीच दुपहरी।
करय छी प्रतीक्षा,
कि बिलाय आबय—
आ हमर नून खाय,
अपन शावकक पोषण करय।
हम सागर नहि छी,
ने हम छी हिमालयक कोनो शिला,
पर नून हमहूँ दऽ रहल छी।
हमर नून वाँछित अछि,
आकर्षित कऽ रहल छै बिलाय केँ।
हमर अश्रु-स्वेद-जनित गन्ध-
हमर परिचय अछि,
जे चिन्हेतै हमर अवशेष केँ-
जखनि कोनो शावक घुरत फेर
हमर गाम सँ,
आ ओइ गाछक तर मे
माटि कोरि कऽ देखत हमर कंकाल।
ओ हमर काव्य नहि चीन्हत,
नहि बूझत हमर गीत,
मुदा गीत-कविता सँ अनभिज्ञ रहैत—
ओ हमर माटि चीन्हत,
आ चाटत ओकरा—
ताकैत अपन माता केर पोषण,
आ सूति रहत ओहि कोड़ल माटि मे।
सहस्र साओनक पानि
पखारत हमर कंकाल,
कालान्तर मे एक दिन
आ चिरन्तन अंधकार मे घिरल हम—
लोप भऽ जायब सदेह।
हमर बिलाय मुदा रहत,
जीवित अपन संतति सँ—
आ हमर हाड़'क धूरि केँ चाटत,
चीन्हत,
आ वर्द्धमती रहत
सहस्रवर्षोपरान्त।
3.विग्रह-गोपन
हमर यैह अपराध थिक
हम प्रेम केँ सदिखन सापेक्ष बुझलहुँ।
देखलहुँ गाछ पर खोँता
बुझलहुँ इजोत केँ शत्रु
मुदा,
सदिखन आक्रान्त रहलहुँ।
जोगा कऽ रखलहुँ सबकिछु,
आ सटा कऽ रखलहुँ मन्दिरक केबाड़
दूर कऽ देलहुँ सबहक दृष्टि सँ
ओ आकृतिविहीन विग्रह केँ
जे ओइ अन्हार गर्भगृह मे बन्द अछि।
ओ श्यामाङ्ग विग्रह—
नीपल जा रहल अछि हमर स्मृतिपट पर,
मुदा ओना नहि
जेना बसिया माछक तीक्ष्ण गन्ध—
नेबोक पात रगड़ला पर लोप भऽ जायत;
परञ्च ओना
जेना उज्जर धोती पर खसल हरदि
बारम्बार मटियाबैत रहला पर मात्र हेरा जेतय।
तड़बन्नी मे—
डाँढ़ मे माटिक पात्र मे ताड़ी जोगेने
शनैः-शनैः गाछ पर चढ़ैत स्वामी केँ
बजा रहल अछि निच्चा मे बान्हल बकरी
आ ओइ बकरी केँ बजबैत अछि ओकर सन्तति।
पूरब मे दूर—
डीह पर उघाड़े देहे बैसल ओ ‘डाइन’
नितान्त सरापैत अछि कोनो दरोगवा केँ—
आ पुकारैत रहै छै अपन दुनु बेटी केँ
जे बीसो बरस पूर्व इनार पर गेल रहय
आ ओत्तऽ सँ घुरि के नहि आयल।
हमहूँ इनार तक जाय छी,
कनि जल खसा दैत छी ओतहिये
कनि लेने घुरि जाइ छी—
मन्दिरक द्वार तक।
हम
बाध्य अपन बान्हल ताला सँ
स्वयं निहोरा करय छी
जे अन्हरिया राति खोलि देल जाय केबाड़
ओहि जल सँ नीपल जाय ओ विग्रह,
अभिषेक कयल जाय ताड़ी सँ
आ संसार सँ नुका कऽ फेर कपाट बन्द होय।
दैनंदिन हम यैह विचार केलहुँ
मुदा दिवसपर्यन्त नहि भेलय अभिषेक
नहि खुजल केबाड़
आ हम मऽने-मऽन विभक्त रहलहुँ।
हमर यैह अपराध थिक
हम प्रेम केँ सदिखन सापेक्ष बुझलहुँ।
4.एक सेर अपराध
हमरा पढ़ाओल गेल छल
जे अपराधक दू-टा अङ्ग होइत अछि—
‘एक्टस रियस’ आ ‘मेन्स रिया’।
ओही भाँति,
अन्यान्य घटनाक सेहो अवश्य होइत हेतय
अपन-अपन ‘एक्टस’ आ ‘मेन्स’।
हमरा जखन ग़ाज़ा मन पड़ैत अछि—
अहाँक स्मरण अनायासे होइए,
अहाँ छियै हमरा सँ बहुत दूर—
मुदा कहियो अनचिन्हार नहि लागल
ओहिना छथि यासिर अराफ़ात आ महमूद दरवेश—
बहुत दूर, मुदा अप्पन।
हमर मन टाँगल अछि
अहाँक पसेना सँ महकैत कुरता जकाँ—
फ़िलीस्तीन मे।
हमरा मे आब सामर्थ्य नहि अछि—
ने साबुन सँ ओहि कुरताक स्पर्श करबाक साहस अछि,
आ नहि मन केँ
फ़िलीस्तीनक खुट्टी सँ उतारबाक:
'मेन्स' दू-चारि सेर अवश्य भेटत,
मुदा 'एक्टस' केर कोष मे अकाल अछि।
बम खसेनिहार सब बिसरैत रहैत छथि
कि दमन सञ्चारी अवरोध अछि
वीरता आ क्रूरता मे भेद अतिरेक-मात्र अछि
आ ओकरा लाँघनाइ बहुत सरल।
सती दग्ध भेलीह किछु देर सँ,
जँ जा कऽ नुका गेलीह यज्ञानल मे—
ई कथा फराके अछि,
जे सब असमर्थ रहल बुझबा मे
कि शरीर अन्तिम दाह छलै,
पहिले दग्ध भेल हेतै हुनक मन।
हम जखन आगि जरैत देखै छी—
तँ मन पड़ैत अछि दाह।
दाह सँ मन पड़ैत अछि मृत्यु,
आ मृत्यु अछि हमर इष्ट।
जप-तप-तीर्थ
हज-नमाज़-ज़क़ात
सब कऽ दैत छी हम
इष्ट केँ तोष आनय लेल;
मुदा शबरी जकाँ—
फलहरी ऐंठ करैत
असोरा पर माछी मारैत
दिन काटि रहल छी
आ सशङ्कित छी,
जे दिन काटय केँ 'एक्टस' मे
की 'मेन्स रिया' सेहो अछि?
5.
मुदिता, तोहर घर बहुदूर।
घर तोहर बहुदूर,
चूर—
मन-अश्व चपल,
भागैत—
लाँघैत सात समुद्र,
एतय जब दड़िभंगा—
लेने ओइ दूर देश केर भेद,
आ
तोहर-हमर विरहक खेद
तोरा कहतौ—
सुनिहैं धरि धीर
जौं आबय नीर
तोहर युग हरिण-नयन सँ..
गै तू करिहें हमरा याद—
हमर हाथक पायसक स्वाद
आबि हम फेर खुएबौ, एक दिवस
हमहूँ नहि बिसरबौ तोर परस-
हम आयब तोहर स्वप्न मध्य,
स-वाणी, शिख-नख चित्र
आ जौं हम बैसल रहब अनिद्र
तोहर स्वप्नक आशा मे
सूतबाक करब यत्न भरपूर।
गै मुदिता, घर तोहर बहुदूर।
हम कानब बैसि विदेश
शेष
तू देखिहें हमरो द्वार—
सौंपय छी मातु-पिता केर भार,
गेल करिहें हमरो अंगना
बैसिहें तू कनि माँ संग
कनिक देर हँसिहें, करिहें गप्प
लेने जइहें फलहरी साथ,
छील कऽ खुअबिहें अपने हाथ।
कोना माँ काटत हमर अवकाश
तोरे पर अछि हमरो विश्वास,
जाइ छी पढ़य लै दोसर देश
तोरा हम देबौ कतेक बेर क्लेश
कऽ दे क्षमा, हमर निठुराइ
एक बेर आबि जो फेर उद्यान
कऽ ले हमर नयन-रस-पान
सुतऽ दे, मुदिता अपने अङ्क
केश मे कऽ दे अङ्गुलिबन्ध
परस सँ जँ फूटय बहुनीर-
चीर सँ पोछि दे हमर कपार
उतरतै बहुत दिनक ई भार—
दऽ दिहें हमरा अपन दुकूल
(...)ओत्तौ जँ दिवस हेतय प्रतिकूल
नुकायब ओहि मे अप्पन भाल
रहत जँ तोहर अङ्क अप्राप्य
मऽन गै तोरे गन्ध सँ साध्य,
भागि कऽ कोना आबै मन-अश्व
थाकि कऽ भऽ जायत ओ चूर!
गै मुदिता, तोहर घर बहुदूर।
6.
सुनू कथा एहि विग्रहक, हे बिछुड़ल बाँधव!
वक्ष हमर रणखेत, स्वयं हम कुरुदल-पाँडव
जौं आबथु जदुनाथ, उदय सँ पहिने आबथु
चलैत युद्धक मध्य शान्ति-रव अपजस मानब।
लाक्षाघर मे देह, मुदा हम जल नहि माँगब
बहुत शेष अछि लोर, नयन केँ सखिवत् जानब
आबि कऽ घुरि जो फेर, उकटि दे सैंतल आशा
एहन छद्म अभिसार केँ अब उपचार नहि मानब।
माघक संध्या बैसि बिताओल नटवर नागर
काग करय उतपात, राधिके अखने जाबह
वृषभानु-धिया नहि एली, अंततः हरि घुरि आओल
हमर शयन केर बेर, कान्ह हम हठ नहि मानब।
बन्धु, आगमन भेल अछि नगर मे विलय-नटीक
कोशी-जल सँ सिक्त, उँघायल शशि-भृकुटीक
आलिंगन की भेल रहल जँ हृदय फराके
बाहुपाश-अभ्यास निमंत्रण हम नहि मानब।
7.
हे सखि, एखनो कहल न जाय!
मेघ हहरि कऽ पानि हराबै
तमघैला-सन ढनढन बाजै
बरसैत पानि- जौं सगरे गुआरिन
गंगा पट पर पुनि-पुनि नाचै।
उठैत हिलोर केँ श्याम बुझि कऽ,
सखिकुल मन केँ भरने जाय
स्याम केँ राधामय करि धारा
सेहो संग बहेने जाय,
मन मे जतेक उद्वेग उठल छै,
से के सुनतै आइ?
कतेक दिवस सँ मन मे राखल
एखनो कहल ने जाय!
हे सखि, एखनो कहल ने जाय!
8.माधव, जुनि ले वंशी भोरे!
माधव, जुनि ले वंशी भोरे!
नीक नहि लागय, एहन कथा नहि-
तन मोर बंधन छोड़य!
डेग-डेग जहुँ भुमि पड़य नहि,
शीत श्वास संग आबय
तोहर पीत-वसन-धन ज्वाला
मन व्याकुल भऽ धावय।
लज्जा हमर कोर मे बान्हल,
पर मन मानय थोड़े?
माधव, जुनि ले वंशी भोरे!
यमुना-तीर चीर धरि आनय,
तोर भोर केर तान,
कोना करब अब, जौं सब देखत,
हम तोर संग सनान।
शीत-भीत हम देखि यमुन जल
रहल जाय पर थोड़े?
माधव, जुनि ले वंशी भोरे!
9.माटि कोरैत इतिहास
मानव सभ्यताक इतिहास
माटि आ माटि कोरबाक इतिहास अछि।
एक दिन माटि सँ फसल भेल,
एक दिन बनल मटकुर।
कोरैत कोरैत एक दिन तामा भेटल,
आ एक दिन भेटल लौह,
जकर कोदारि बना केँ
मानव आरो कोरै लागल।
एक दिन चमकैत पाथर भेटल,
तँ ओकरे ठोप-चानन कऽ केँ
अपन समस्त बुधि केराक पात पर चढ़ा देलक।
सहस्राब्दी बीतल कोरैत-कोरैत,
आ अंत मे एक दिन भेट गेल मटिया तेल,
मटिया तेलक दियाद सब सँ मिलि कऽ
मानव बड्ड प्रसन्न भेल।
ओहि दिन सँ मानव कोरैत गेल,
आ एहिना माटि कोरैत-कोरैत
आइ हम सब गड्ढा मे छी।
खाली खेत मे
बरद लऽ कें हऽर पारै पर,
भेटबाक संभावना रहैत अछि
किछु-ने-किछु अमोल-
जखन जनक सीरध्वज केँ भेटल सीता,
तँ हम सोचलहुँ हमरा भात तँ भेटबे करत।
समुद्रक कात बालु पर खिचल रेख,
पानि मे दहा जाय छै,
मुदा सभ 'बीच' पर गेनिहार
ओ रेखा खिचबे टा करै छथि—
अपन आ अपन अनुरागिनीक नाम
बालु पर लिखबे टा करै छथि।
कियै?
मिटेबाक हेतु?
संभवतः...
यद्यपि चंद्रमा पर खिचल रेख-पदचिह्न
वर्तमान-पर्यन्त स्थित अछि,
मुदा मानवताक ओहि रेख सँ गौरव तँ भेटल,
भात नहि भेटल (आ नहि भेटबो करत)।
सूखल माटि मे रेखा खिचबा पर,
संभव इहो अछि ओ रेखा निकलि जाय
देश-आ-काल सँ आगू।
किछु मेटा जाए, आ किछु रहै अमिट।
कोनो दिन भात भेटै,
आ कोनो दिन निकलि जाए चुट्टी
लाल, काटै पर उद्यत।
आइ समस्त मानवता,
ओइ गहिर गड्ढा मे ठाढ़ अछि
एक-दोसरक माथ पर।
भात-भात कऽ रहल छै,
ललका चुट्टी बिलबिला कऽ काटैत अछि,
आ मनुख देह झाड़ि कऽ चुट्टी खसा दैत अछि
अपना सँ निच्चा ठाढ़ मनुखक देह पर।
निच्चा ठाढ़ लोक
अपन हाथ सँ
अपन माथ पर ठाढ़ मनुखक पैर डोलबैत अछि,
कि जँ ई खसल,
तँ ओहि सँ ऊपर,
आ ओकरो सँ ऊपर कें—
सब बजरखसुआ सब खसि पड़त,
आ हमर माथ हलुक हेतै।
जे सभ सँ ऊपर ठाढ़ अछि,
ओकरा एकर डर अछि,
जे हम खसब तँ बचब नहि।
जे हम ठाढ़ छी,
सबहक माथ पर चढ़ि कऽ
ओ ध्वस्त भऽ जायत
आ सौंसे देह काटत चुट्टी।
ओ ऊपर मे ठाढ़ अछि,
तैं ओकरा लग अछि भात,
आ ओकरे हाथ मे छै ओ ठोप-चानन कएल पाथर,
जकरा सब बड्ड मानैत अछि।
ओ बीच-बीच मे
पाथर चमका केँ निच्चा देखा दैत अछि।
पाथर देखते देरी,
उपरका मनुखक पैर छोड़ि
सब जोड़ि लैत छथि हाथ,
आ पाथर केँ करै छथि नमस्कार।
उपरका लोक हँसैत जाइत अछि,
निचलका गोर लगैत जाइत अछि।
कोरल माटि केँ कोरैत जाउ,
ठोप-चानन केँ गोर लगैत जाउ,
साँप-चुट्टी कटाबैत रहू,
भात-भात कानैत रहू
यैह अछि समस्त इतिहास बोधक सार,
प्रेम सँ माथ पर लेने रहू—
ई बजरखसुआ सबहक भार।
10.
माधव, हम विधि तौं अपवाद!
तुअ दुइ-चन्द सरिस जुनि आबह
जौं खर-जिह्वा मधु स्वाद।
माधव, हम विधि तौं अपवाद!
रौद तपत, निज नयन सुखायल,
जौं मन बाहर टाँगल,
आइ देखल हम, नील गगन मे
मेघ श्वेत रंग राँगल।
निरजल केलक मेघो हमरे संग
पर तुअ मोह ने लाग,
माधव, हम विधि तौं अपवाद!
अखने आयल छल, अखने घुरल सखि!
गेल बिदेस, छोड़ि हमरा यदि
करब कलह हम, कहब कथा नहि
फेर ने भेटब, बड़भाग!
माधव, हम विधि तौं अपवाद!
•••
आदित्य कृष्णक कविता प्रकाशनक ई पहिलुक अवसर थिक। ई कविता सभ ओ बहुत मोन आ श्रम सँ संभव कयलनि अछि— से देखार पड़ैत अछि। नव कविक कविता सन बगय-बानि आ कँचकुँह सुआद सेहो भेटैत अछि। आदित्य अपन समय आ समाजक प्रति गंहीर दृष्टि रखैत छथि आ एहि क्रम मे अपन आब्जर्वेशन, पाठ आ विवेचन मे ओ सभ किछु पबैत छथि जे एक गोट नीक कविक रचनाक लेल नितांत आवश्यक होइत छैक। संगहि हिनक कविता मे आयल नव बिंब सभ अपन टटकापन सँ ध्यान आकृष्ट करैत अछि। अत्यधिक शास्त्रीय अथवा अत्यधिक देशज भाषा जे आजुक मैथिली कविताक सभ सँ पैघ शत्रु अछि आ विगत किछु वर्ष मे जकर अनटोटल प्रयोग सँ मैथिली कविता क्लांत रहल अछि— आदित्यक कविता सेहो ताहि सँ ग्रस्त अछि। जँ आदित्य एकरा सम्हारि सकथि तँ अपन कविताक अर्थ मे बेस विस्तार द’ सकताह। बहुत रास सम्भावना आ शुभकामनाक संग मैथिलीक काव्य-संसार मे आदित्यक स्वागत!
आदित्य बेरि, कुशेश्वरस्थान, दरभंगाक रहनिहार छथि। वृत्ति सँ वकील आ सम्प्रति लक्ष्मीसागर, दरभंगा रहैत छथि। हुनका सँ adityakrishna.nlsiu@gmail.com पर संपर्क कयल जा सकैत अछि।
एहि सृजनमे बहुत रास सम्भावना देखाइत अछि। तकरा थथमारि बेस आकार दैत रहथिन तँ एहि भविष्णु कविक एक विराट स्वरूप देखबामे आबि सकैत अछि।
जवाब देंहटाएं--- नारायण झा
बड्ड नीक कविता सब ! कवि कें हार्दिक बधाइ संग शुभकामना 💐 —रोमिशा
जवाब देंहटाएंनीक कविता सभ. अलग भाव-भूमि आ कविताक वितान तकैत काव्य भाषा. मैथिली कविताक नव दुआरिक आस जागल ऐ.
जवाब देंहटाएंबढियाँ कविता सभ..
जवाब देंहटाएं– सोनू कुमार झा
आदित्य कृष्ण नाम मैथिली कवितामे पहिलबेर अभरल अछि।कविता सभ कठिन मेहनत सँ रचल गेल अछि।एना कही जे पकठोस रचना सभ अछि।पसेनाक अर्क सँ नोन कियो सहजे नहि बना सकैत अछि।अंतिम कविताक शील्प तँ विद्यापतिक कविताक बहुत लगीच बूझाइत अछि'माधव हम विधि तौँ अपवाद'।विद्यापति लिखै छथि 'माधव तोँ जनु जाह विदेश'।शील्प बेछप,गतानल वाक्य विन्यास,दुरूह शब्द प्रयोग मुदा से कथ्यक नबताक संग आयल अछि।हम हिनक मैथिली काव्य संसारमे स्वागत करैत छियनि।शब्दक सहजतासँ सम्प्रेषणीयता बढ़ैत छैक से ध्यान रहय।
जवाब देंहटाएंदिलीप कुमार झा।
मधुबनी सँ