|| राजकमल चौधरीक किछु कथांश ||
चयन आ प्रस्तुति : विकास वत्सनाभ
साहित्य आ समाजक संबद्धता दर्पणक रूप मे व्याख्यायित अछि। साहित्य सामाजिक यथार्थ केँ उद्घाटित करबाक एकटा सशक्त माध्यम होइत अछि। समाजक रूढ़ अवधारणा आ परम्परागत अतिवाद सँ दर्पणक पारदर्शिता जखन किंचित मलान प्रतीत होबए लगैत अछि तखन राजकमलक साहित्य ओहि दर्पण केँ आओर पारदर्शी बनएबाक एकटा नवोन्मेषी साहित्यिक संधानक रूप मे सोंझा अबैत अछि।
जीवनक अविकल यथार्थक सँ ओतप्रोत राजकमलक साहित्यिकी 'महावन' मे औनाइत मनुखक अंतर्विरोधक मुक्तिक हेतु 'किरणमाला' तकबाक आग्रही तँ अछिए संगहि वंचित आ शोषित वर्गक जीवन-संघर्षक वस्तु-स्थिति केँ आत्मसात करबाक नवीन दृष्टि दैत अछि। अपन सुविधा अनुसार ओहि वर्गक घाम आ देहक उपभोग करबाक सामंती प्रवृति केँ उघार करैत भूख, भोग आ भत्ताक सिक्कड़ मे जकड़ल समाजक 'मुक्ति प्रसंगक'क अन्यतम पक्षधर सेहो बनैत अछि।
वर्गीय शोषण आ स्त्रीक जीवन मिथिलाक मूलभूत समस्या सभक केंद्र मे रहल अछि। राजकमलक दृष्टिकोण ओहि साहित्यिक परंपराक संपोषक अछि जे परिवर्तनक हेतु बहुपक्षीय सामाजिक यथार्थक अभिव्यक्ति केँ अनिवार्य मानैत अछि। वरिष्ठ आलोचक मोहन भारद्वाज राजकमलक कथाक मादे लिखैत छथि : "राजकमल चौधरी सामन्ती जीवन पद्धतिक जाहि दूरगामी प्रभाव केँ देखार करए चाहैत छलाह, ताहि लेल मध्यवर्गीय समाज आ ओहि समाजक स्त्रीगण केँ आधार बनाएब स्वाभाविके छलनि।"
राजकमलक साहित्य मे उपस्थित परिवेश एकदिस पात्र केँ परिपक्व बनबैत अछि तँ दोसर दिस एहि देस-कोसक भौगोलिक, सांस्कृतिक आ आर्थिक पक्ष सभ केँ बुझबाक सम्यक दृष्टि दैत अछि। आंचलिक उपमा आ बिम्ब सभक अभिनव प्रयोग, शिल्पक नवीनता, कथ्यक कुशलता, कतहुँ नॉस्टेल्जियाक सम्मोहन कतहुँ मोहभंग, कतहुँ अस्तित्ववादक चरम आग्रह कतहुँ विरोधाभास, कतहुँ 'फुलपरासवाली' तँ कतहुँ 'साँझक गाछ', कतहुँ ललका पागक 'तिरू' तँ कतहुँ 'एकटा चम्पाकली एकटा विषधर'क रामगंजवाली। सभ स्वरुप मे अपना सन एसगर राजकमल।
मैथिलीक एहि नवोन्मेषी आ बहुचर्चित कथाकारक जन्म १३ दिसम्बर १९२९ केँ अपन मात्रिक रामपुर हवेली, मधेपुरा मे भेल रहनि। हिनक पैत्रिक गाम महिषी आ मूल नाम मणीन्द्र नारायण चौधरी रहनि। सिनेह सँ हिनका लोक फूलबाबू सेहो सम्बोधित करनि। साहित्यकासक एहि जाज्व्लयमान नक्षत्रक अवसान १९ जून १९६७ केँ भेल। हरिमोहन झाक शब्द पुष्पक संग एहि साहित्यिक मनीषी केँ सादर स्मरण : हे अमर! हमर शुचि राजकमल!
एतए उद्धरित कथांश 'साँझक गाछ' कथा संग्रह सँ चयनित अछि :
हमर देश मे जे 'गारन्टी ऑफ पीस' द' सकैछ से तँ लालकिलाक मुड़ेरा पर खजबा टोपी, करिया अचकन...चुननदार पैजामा पहिरने तिनरंगा छत्ता तनने आराम सँ पड़ल अछि! आ भगवान जँ स्वर्ग मे छथि तँ अबस्से दुनियाँ मे सभ वस्तु ठीक छैक।
(अपराजिता)
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देशक ई हालत किएक, से सभ जनैत अछि-हमहूँ...अहूँ...नेता आ जनतो! तइयो ई देश अपन दरिद्रा केँ सोनाक पानि चढ़ाओल डिब्बी मे बन्द क' क' विदेशक प्रदर्शनी 'शो-केस' मे सजबैत अछि। रीढ़क अपन हाड़ तोड़ि ताजक रूप मे उपस्थित करैत अछि। फाटल-चीतल केथरी जोड़ि आ सजा, भटरंग क' प्रति पन्द्रह अगस्त क' शाही महल सभ पर तिरंगा फहरबैत अछि।
(अपराजिता)
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अधन्कार मे वासना जतय नहि आनि सकलै, ओकरा इजोत मे कर्त्तव्य खींचि अनलकै।
(अन्धकार)
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पेट नहि रहितय तँ अपन छोट-छीन गाम छोड़ि पटना किऐक ओगरने रहितहुँ...आ बिलट भाइ तारास्थान मे सदति गुंजित विद्यापति, जयदेव आ नन्ददासक पद केँ छाड़ि आइ अशोक राजपथ पर 'जाहजघाट' 'महेन्दू', 'मुसल्लहपुर' एक सवारी, किऐक करितथि?
(फुलपरासवाली)
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मैथिल स्त्री केँ चिन्हबा मे कोनो भ्रम नहि भ' सकैत अछि। आन देस, आन भेसक स्त्री सँ हिनका सभ मे बड़ भिन्नता। माघी पूर्णिमा मे सिमरिया-पहलेजा-महादेवपुरक गंगाकात मे मैल, फाटल मोटरी-पोटरी माथ पर रखने सखी-बहिनपा केँ सस्वर चिचिया-चिचिया क' "हे हइ मुनिया माय, हे अइ बिसनपट्टीवाली, अइ बहिना, हे पान, हे चानन, गे माय” कहि बिलखैत मैथिल नारि। जाँत मे गहूँम पिसैत, ढेकी पर चाउर छँटैत, ऊखरि मे चूड़ा कुटैत, सिलौट पर पिठार पिसैत आ एहि सभक बान्हल तालक संगें कोनो नव-पुरान पद नहुँए-नहुँए गबैत मैथिल नारि । तुलसी-चौरा निपैत मैथिल नारि, अरिपन पर सिन्दूर आ पिठारक रक्त-श्वेत उगबैत मैथिल नारि, सामा आ नुका-चोरी क' जट्टा-जट्टिन खेलाइत मैथिल नारि।
(ललका पाग)
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मिथिलाक छौड़ी सभ एहिना कनैत अछि। नीको मे आ अधलाहो मे। कानब-कलपब मैथिली स्त्रीक परम्परा भ' गेल अछि।
(ललका पाग)
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गाम मे बाड़ी-झाड़ी मे घुमैत रहैवाली, दोसराक खेत सँ साग आ परोड़ तोड़ेवाली तिरू मरि चुकल छलि। आ जनम ल' रहलि छलि एकटा नव तिरू। छौंड़ी नहि पूर्ण स्त्री। मैथिल स्त्री, जे जीवन भरि सहैत रहैत अछि, बजैत अछि किछु नहि, किछुओ नहि।
(ललका पाग)
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पुरुषक माथक ललका पाग तँ स्त्री होइत छैक। से तँ तोरा संग मे छहे। तखन तो किएक कनैत छह...!” राधा किछु नहि बाजल।किएक नहि बाजल ?
(ललका पाग)
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स्त्री केँ सहानुभूति आ ईर्ष्या दुन्नु बड्ड शीघ्र होइत छैक।
(हरिद्वार वास)
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लिप्टनक कैलेंडर, कैप्सटन सिगरेटक पसरैत धुआँ, चाहक प्याला पर प्याला, होटलक नोकर आ हम। ई सभ जिनगीक पहिआ थिक, एकरा रोकब सम्भव नहि। किएक तँ एहि पहिया सभक धुरी थिक-रुपैया, रुपैया!
(खरीद-बिकरी)
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क्षण मात्र मे स्त्रीक असंख्य चित्र हमरा आँखि मे पसरि गेल, नाच करैत स्त्रीक चित्र, कथकलीक मुद्रा मे दहिना पयर उठौने, गरदनि टेढ़ कयने, आँगुर छितरेने, बाँहि मोड़ने, पुष्ट पीन वक्ष हिलबैत स्त्रीक चित्र । गृहस्थ स्त्रीक चित्र, केबाड़क अ'ढ़ सँ सड़क दिस तकैत, स्वामीक प्रतीक्षा करैत, सासु-ननदि सँ झगड़ा-दन्न करैत, पतिक पएर धोइत, बालक कँ दूध पियाबैत, देअर सँ हँसी-ठट्ठा करैत स्त्रीक चित्र । अशोकवाटिका मे राक्षसी सभक मध्य वैसलि, सीताक चित्र। हरिणक शावक केँ सिनेह सँ खेलबैत, शकुन्तलाक चित्र। अभिमन्युक शव लग विलाप करैत, उत्तराक चित्र। गौतम-पुत्र राहुल केँ कथा-पिहानी सुनबैत,यशोधराक चित्र।
(खरीद-बिकरी)
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कादम्ब विधवा छथि आ जखन एहि अष्टादश-वर्षीया विधवा केँ देखैत छी तँ मोन होइत अछि जे आगि नेसि दी, वेद आ पुराण मे, आ मनुस्मृति मे, आ एहि देश मे जत' कदम्ब सन स्त्रीक शरीर केँ वैधव्यक आगि मे भस्म क' देल जाइत अछि!
(सहस्र-मेनका)
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धर्म, नैतिकता, असंख्यतासहस्र देवी-देवतादि समाजक हाथक साधारण हथियार थिक। आन किछु नहि, मात्र व्यक्ति केँ बध करबा हेतु समाज धर्मक गीत गबैए, नैतिकताक माला जपैए, देवी-देवता पर पुष्पहार सजबैए।
(मुग्धा- विमुग्धा)
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लाज आ परदाक बन्धन सामन्तवादी युग आ ऐश्वर्य-परम्पराक बन्धन थिक। दरिद्र केँ लाज किएक हेतैक? शरीरक अंग-अंग नुकयबाक प्रयास, भीतर सँ केबाड़- किल्ली ठोकि क' नारी केँ बन्न करबाक प्रयास, घोघ-घोघट साड़ी-कंचुकी-साया- ब्लाउजक प्रयास, सभ्य भाखा, सभ्य बोल, सभ्य सुसंस्कृतज्ञाक प्रयास, धनीक व्यक्ति सभक प्रयास थिक। संस्कृति आ सभ्यता दरिद्रक सम्पत्ति नहि, धनीकक विलास-साधन थिक...
(मुग्धा- विमुग्धा)
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अशोकक गाछ आ हम एक्के बर्ख जनमलहुँ। गाछ अछि, हमहूँ छी। गाछ नहि रहत, मुदा हम रहब। हम एकटा गाछ रोपब, आ से गाछ रहत। हम अनेक गाछ रोपब, आ से सभ गाछ रहत। हम मनुक्ख छी, गाछ नहि। हम गाछ रोपि सकैत छी। गाछ हमरा नहि रोपि सकैत अछि।
(गाम मे राति राति मे गाम)
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नहि, हम गाम नहि जायब। गाम आ नगर मे कोनो भेद नहि छैक। गाम रही, अथवा कलकत्ता रही, गप्प एक्के। गाम आ नगर आ जंगल आ मरुभूमि, सभ एक्के थिक। एक्के अन्हार सभ ठाम। सभ ठाम एक्के भूख, एक्के आगि, एक्के प्रकारक बनैया सूगर आ बाघ आ हरीन, आ एक्के प्रकारक राति। गामक राति। जंगलक राति।
(गाम मे राति राति मे गाम)
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हमर गाम कत' ? मोनक निर्जनता मे ई प्रश्न आइ सँ पहिनो हमरा कतेको बेर व्यग्र कयने अछि। व्यग्र आ निरीह; जेना हम जाति, कुल, घर-दुआर, समाज आ परम्परा सँ उठा क' कोनो अथाह इनार मे फेकि देल गेल छी आ डूबल जा रहल छी, नीचाँ, आर नीचाँ-एहि पतनशीलता, एहि डूबल जयबाक कोनो अन्त नहि। मोनक निर्जनताक इनार सँ बाहर भ' जगति पर, कोनो जगति पर पैर देबाक सुविधा हमरा नहि अछि। मुदा तैयो ई गाछ, पाकड़िक ई सहस्रडारि गाछ, जे एके संगें एहि गामक सिमान पर, आ हमरा हृदय मे चतरल आ पसरल अछि, हमरा जीबाक हेतु, जीबैत रहबाक हेतु शान्ति आ सान्त्वना दैत अछि। सान्त्वना दैत अछि ई माघक साँझ, ई ललछोह अन्हार, अर्थात् मिथिलाक एहि निस्तब्ध ग्रामांचलक हरियर-पीयर दिवसावसान हमरे जकाँ अस्वस्थ आ जर्जर।
(साँझक गाछ)
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स्वांग रचब हमर जीवन आ जीविका भ' गेल। बीस बर्ख पहिने ई सत्य हमरा बुझबा मे आबि गेल छल जे जीबाक अछि, पोसल कुकूर जकाँ वा अरना महीस जेकाँ, कोनो तरहेँ जीबाक अछि; तें स्वांग रच' पड़त, कोनो-ने-कोनो स्वांग-नीक लोकक वा अधलाह लोकक! बुझबा मे आबि गेल छल जे सभ लोक कोनो-ने-कोनो स्वांग रचैत अछि। जे हम छी, जे हमर असली व्यक्तित्व अछि, हमर असली चेहरा, से व्यक्त कयने, से व्यक्त करैत रहला सँ ने हमरा अन्न-पानि भेटि सकैत अछि, ने ठाढ़ होयबाक लेल कोनो ओसारा, कोनो आँगन! अतएव, अपन गाम त्यागि क' हम नकली जीवन बेसाहि रहलहुँ।
(साँझक गाछ)
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जीबह, जागह, चूल्हि मे लागह-ई कहबी हमरे चरित्र मे चरितार्थ भेल अछि सम्पूर्ण रूपें। जीबैत छी, जागल रहैत छी, मुदा, जिनगी एकटा विराट चूल्हि अछि जाहि मे हम सदिखन हरियर-काँच जारनि जकाँ जरैत-सुनगैत रहैत छी। आगि पजारबा मे सभ सँ बेसी सहायक होइत अछि अतीत। बीतल दिनक स्मृति।
(साँझक गाछ)
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साँझक गाछ तर ठाढ़ भेल, दू गामक सिमान पर, हम अन्हार आ इजोतक मिलान करैत छी। अन्हार की थिक? आ इजोत की थिक? जीवनक ई पैघसन छत्तीस बर्ख हम कोन वस्तुक लेल काटि देलहुँ । कथीक लेल?
(साँझक गाछ)
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इएह थिक हमर जीवनक विरोधाभास-एहन विरोधाभास जे अपन स्वामी के शरीर सँ रुग्ण-रोगग्रस्त, मोन सँ जर्जर आ जीवनक प्रत्येक क्षेत्र मे असफल बना दैत अछि। रवीन्द्रनाथ ठाकुरक एकटा उक्ति प्रसिद्ध अछि, 'जाहा चाई ताहा भूल कोरे चाई, जाहा पाई ताहा चाई ना', अर्थात् जकरा प्राप्त करबाक इच्छा कयलहुँ से एकटा भ्रान्त इच्छा छल, आ जकरा प्राप्त कयलहुँ तकरा पयबाक कोनो इच्छा मोन मे नहि छल।
(साँझक गाछ)
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हम साँझक गाछ छी– कखन अन्हार मे डूब जायब कोनो ठीक नहि। कोनो बातक कोनो ठीक नहि, एहि गामक सिमान पर एकसर ठाढ़ भेल हम निर्णय करैत छी– आन कोनो बातक ठीक नहि। ठीक एतबे जे आइ माघक परीब थिक, आ पहिल पहरक ललछोह अन्हार मे चतरल पाकड़िक एकटा सहस्रडारि गाछक छाँह मे हम ठाढ़ छी। हम एहिना ठाढ रहि जायब।
(साँझक गाछ)
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संसार मे साधारणतः दुइए प्रकारक लोक होइत अछि-एकटा लोक जे घड़ी देखि क', राति आ राति-दिनक काज करैत अछि...आ, दोसर प्रकारक लोक जे हाथि मे, देबाल मे, टेबुल पर टांगल-राखल घड़ीक काँटा अपना मोने, अपन इच्छाक अनुसारें, घुमा लैत अछि...अर्थात् जखन हमर निन्न फूजत तखने भोर होयत, तखने सवा सात बाजत!
(घड़ी)
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'हरि अनन्त हरिकथा अनन्ता' एहि लोकोक्ति मे हम एतबे परिवर्तन कर' चाहैत छी जे हरिकथा आ मनुक्खक कथा मे कोनो भेद, कोनो अन्तर नहि छैक। हम सभ मनुक्ख छी...माने, हमरा सभक देह आ आत्मा मे मात्र हरि, मात्र देवता नहि दैत्य आ राक्षसक निवास-स्थान सेहो अछि। अस्तु हमरा सभक कथा...हमरा सभक व्यक्तित्व आ सामाजिक चरित्रक कथा अनन्त अछि, हरिकथा सँ बेसी अनन्त!
(घड़ी)
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विद्वान पुरान लोक कहै छथि, “थारी बाटी सँ अन्नक महत्त्व बेसी छैक। पात-पल्लव सँ बेसी महत्त्वपूर्ण छैक फूल आ ताहि सँ बेसी फल ! मात्र फले टा अन्तिम आ चरम चिन्ताक विषय होबाक चाही। मात्र फले टा, पात नहि।"
(पात)
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बड़की कनियाँक आँखि केहन छनि, जे दू मुँहवला दीपक लह-लह करैत दुनू टेमी। बड़की कनियाँक धूआ केहेन छनि, हनुमानक सिन्दूर सँ सरस्वतीक प्रतिमा के रंगि देल गेल हो।
(कादम्बरी उपकथा)
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आदित्य आब धनीक लोक छथि। जैह नहि करथि सैह अनर्थ।
(आवागमन)
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रुदन आ उपराग, श्राप आ अन्ततः गारि— एखनो विधवा स्त्रीक सहज सम्बल अछि।
(आवागमन)
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एकटा छी हम सभ। एकटा अखबार बहार क' लइ छी, एकटा गल्प लिखि लइ छी, चारि टा टाका कमा लैत छी, तँ होइए जे हमहीं विश्व मे सभ सँ गतिशील, सभ सँ प्रगतिशील छी ...।
(यात्राक अंत)
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बहुत नीक।नीक संकलन।बहुत बहुत धन्यवाद,
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