सभतरि पसरि गेल छै अन्हारक आतंक

राज मैथिलीक वरेण्य कवि आ प्रयोगधर्मी गीतकार छथि। 'ऐ अकाबोन मे' शीर्षक सँ एकमात्र कविता संग्रह प्रकाशित छनि। राज बहुविधावादी रचनाकार छथि आ हिनक विभिन्न विधाक पोथी सभ प्रकाशनक बाट ताकि रहल अछि। 

राजक कविता मे एक दिस सामाजिक विखंडनक पीड़ा अछि तँ दोसर दिस आंचलिक सौंदर्य आ संस्कारक आग्रह। राजक इएह आग्रह हुनका लोकसरोकारी बनबैत अछि आ हुनक प्रतिबद्धता मे मिथिलाक लोक आ माटि सन्निहित भए जाइत अछि। किंसाइत तेँ राज केँ पाजेबक रुनझुन सँ बेसी बरदक गराक घंटीक टुन-टुन बेसी सम्मोहक लगैत छनि। 

राज कोनो नव समाज गढ़बाक आग्रही नहि छथि अपितु समाजक आग्रह मे व्याप्त यथास्थितिवादक परती केँ तमैत अपन यथेष्ठ पएबाक हेतु संघर्ष आ नवीन वैचारिकताक पक्षधर छथि। राजक एहि समाजक चास-बास कतहुँ सँ 'मोनोलिथिक' नहि अछि। एहि चास-बास मे हजाम, मजूर, प्रेमिका, धान, फुलाएल मटरक फूल आओर ओहन समस्त वस्तु-जात जे समाजक निर्माण प्रक्रियाक अन्यतम साक्षी अछि, सम्पूर्णताक संग ठाढ़ भेटैत अछि।

राजक काव्य भाषा आ कविताक अन्तरलय मे एकटा विशिष्ट आकर्षण भेटैत अछि। एहि आकर्षणक एक अंत पर अछि प्रेम आ दोसर अंत पर प्रतिकार। प्रेम आ प्रतिकारक ई केमिस्ट्री विलक्षण अछि। अपन परिवेशक एहन सम्मोहक चित्रण, अपन भाषाक एहन मौलिक विन्यास, अपन लोक आ माटिक प्रति एहन अगाध स्नेह, प्रेमक एतेक तन्नूक संबोधन, संबंधक एतेक सहज स्वीकारोक्ति आ प्रतिरोधक एतेक मुखरित स्वरूप समुच्चय मे अन्यत्र भेटब दुर्लभ अछि।

— विकास वत्सनाभ 



|| राज केर किछु कविता ||


१. साँझ : एक दीठि 

परदेश सँ घूरल सुरुज जल्दी पहुँच चाहै छल घर

रस्तेमे क्षयरोगक दौरा भ' गेल रहै

शोणितक किछु कतरा बोकरि, सुरुज मरि गेल, बिसरा गेल

एहिना कएकटा दिन सुरुज नमैत अछि 

आ कएकटा साँझ मरि जाइछ 

चिड़ै - चुनमुनी गबैछ 'शोकगीत' 

हतासिनी दिशा हिचुकि-हिचुकि

तोड़ि देलक पियरका लहठी

आ ओकर नोर 

ओहि धारक कातक बालु मे विलीन भ' गेलै 

ओना ई सभटा महज एकटा दिनचर्या बनि गेल छै 

धारक लगीचक ओइ बस्तीमे 

भूखें लोहछैत, अपन नेना के बौंसि रहल कोनो माय

जे ओकर बाबू पू- भर सँ कमाक' ओतै।

सभतरि पसरि गेल छै अन्हारक आतंक 

मात्र ई उल्लूक हेंज प्रसन्नचित्त चिचिआएल फिरै ए 

-इजोत-इजोत-इजोत 


२. मदारी के घुमा दियौ 


ओ बुढ़बा मदारी हमरा बंसुरीक धुन 

सुना मोह' चाहै-ए

की ओकरा पता नै छै कि आब हम

सुनबासँ पहिने देखै छियै ? 

खाहे कतबो पियास किए ने लागय

मुदा हमरा आँखि मिझेबा स' पहिने धरि

निहारैत रहत, चिन्हैत रहत कि 

हमरा लेल ई पानि कोनो झरनाक नै

कोनो अजेगरक जीह स' चुबैत लेर भ' सकै छै

हमरा बेर बेर आपस क' अनबाक

ओकर मादक सुर पुरना गेलै-ए 

हमरा सभक बीच जे मुखौटा के 

लगा ओ पहुँचै छल

आब ओकरा चेहरा पर कुबैन बैसै छै

अपसोच ! कियो ओकरा बुझा सकिते

कि लक्ष्मण, मारीच आ रामक स्वर 

अंतरक नीमन नहैत चीन्ह गेल छै 

तैयो मदारी डमरू आ बंसुरी बजा हमरा शोर पारै-ए

की ओकरा उमेद एखनौ धरि नै ठेहिएलै-ए

कि ओकरा चौतरफा गोठियैल भीड़मे हम 

साझी नै भ' सकै छी ! 

हमरा पता ऐछ कि भीड़ भखरि रहल छै

भखरि जेतै 

कियै त' मदारी खाली 

रूप-महल ठाढ़ करबाक

बात टा कहि रहल छै 

खोपरीक नै

भीड़सँ जहनि-जहनि 'रोटी-रोटी' क 

अवाज अबै छै त' 

ओ डमरू आ बंसुरीक अवाज के 

तेज क' दै छै

आबह मीत ! 

हम सभ डमरू आ बंसुरीक 

धुन ओकरा घुमा दियै

आ रोटीक टोहमे सहयात्रा करी ।


३. मोन पड़ैत हेतौ तोरा 


संगिता ! निश्चय तोरो मोन पड़ैत हेतौ 

जहर कनैलक गाछ तर

बिसहाराक गहबर सन एगो इसकूल

भगतियाक मुद्रामे बैसल कोनो गुरुजी

आ गुरुजीक हाथक 

बेंतक दुखमोचनी छौंकीक डरे सिटपिटाएल ठाढ़ चटिया सब। 

आकि मकैक खेत सन बेघर कोनो इसकूल 

गीदड़ जेकाँ हो-हल्ला मचबैत, उद्धत-चटिया सब

आ ओगरबाह जकाँ। कुरसीक मचान पर झुकैत बीच-बीचमे

गुरुजीक डोकाक हार सन खड़खहाड़ स्वर

निश्चय मोन पड़ैत हेतौ तोरो

आकि मोन पड़ैत हेतौ मुखियाजी 

कि राय साहेबक दलान आकि

भुसखाँड़ बनल कोनो इसकूल 

जिरतिया आकि मनेजर बनल कोनो मास्टर। 

भूतकाल के अनुरागक नै

राग-द्वेषक पाठ पढ़बैत, भविष्य पर मरछाउर छिटैत 

हम पुछै छियौ संगिता 

आखरिस कहिया धरि

निर्माणक सबटा बात आ बाट

परीकथे बनल रहतै ? 

कुशिक्षाक नोनिआएल नियों पर 

राष्ट्रक मोकाम बनैत रहतै 

ढहैत रहतै ? 


४. ढोलहो


सुनै जाउ ! 

सुनै जाउ !!

सुनै जाउ !!!

कान खोलि केँ

सुनै जाउ ! 

रंग महल के 

शाही फरमान। 

कोइली पर

साफे क' 

रोक लगा 

देल गेल छै

दोखो स' 

बहार नै करय

अपन पंचम तान

मुरगा आ पपिहरा

किन्नौ ने क' सकै-ए

भोरक सलाम

ई अधिकार

कौवा के देल गेलैए

ओ सभ दिन 

अहलभोरे

आओत 

विसर्जित

पारस पाओत 

आंगने-आंगन

दलाने-दलान

हजूर नबीसक

प्रशंसामे

गाओत। 

सिंह सभ के

सिंहद्वारि पर

असेधि

ठाढ़ क' देल गेल छै

आ गीदर सभ

सम्हारत कमान।

द्वारि पर 

होइत रहत 

वृंदगान 

कोप भवन मे

फेर कोनो 

नवकी रानी

रुसलि

प्रशिक्षित

बनरनी सन

प्रतीक्षामे 

मनौतीक

मानक संग

राज भवन मे

चलैत रहत

एहिना 

हिजड़ा समुदायक

मतव्यक्तिक

नवाधिकारक संग

बम चिक 

नाच - गान

केहुनी 

फरका-फरका

'दिल' पार

बलू ठोर पर

'हाय मेरा

ये दिल धड़का'। 


५. निश्चय 


अहाँ घुरि जाउ हे पिता ! 

अहाँक रक्तहीन टांग छोड़ि रहल ऐ अहाँक संग,

दिअ हमरा अपन असफलता आ निराशाक उत्तराधिकार

हम पट्टीदार सब स' अपन हिस्सा

ल' क' छोडबै

हम ऐ फुसियाब' बला कपाली के पिठिअबैत छी

जे कहैत छल 'तोहर प्रेत भागि गेलौ' 

'भागि गेलौ', त' फेर कोना सुखायल

अहाँक रक्त-देहक मासु आ मोनक आस

आ तै पर स' महाजनक कर्जाबही 

कहिओ नै ख़तम होब' बला बाट के

आब अहाँ पार करबाक विचार नै करु,

अहाँ बिलमि जाउ,

हमरा चल' दिअ' 

हम ओइ प्रेत के सकपंज क' छोड़बै

ताबत अहाँ बैसल

अभियानदलक यात्रा देखि सकी

त' देखू 


६. तानाशाह


अहाँ तान देबै

ओ ताना देत

अहाँ ताना देबै

ओ शह देत

अहाँ नीति देबै 

ओ भीति देत

अहाँ 'सीट' देबै

ओ पीट देत।


७.  नै चाही विस्तार 


आब कहाँ रहलै ओ समय

जहनि कि दाइ माँ सरोबर लिखै छली

ओइमे दहाइत पुरइनिक दह आ ओइ पर मरराइत सूगाक जेर 

नै आब कहाँ रहलै ओ समय 

जहनि रुपैयाक मोन भरि अनाज भेटै छलै

चालीस सेर दूध भेटै छलै

नै आब कहाँ रहलै ओ समय 

आब त' ओ सबटा बुढ़बा ककाक मूँहक

कुबैन-अनसोहाँत खिस्सा टा रहि गेल छै 

खाली आँतक 

पताइत कंठक सोहर आखरिस कते नीक लगतै

फाटल आँचर आखरिस कते अनुराग लपेटिक' राखि सकतै 

डिहबार आकि पीड़ बबाक मनौती 

भगत ककाक झाड़-फूक आ 

मोलबी साहेबक गंडा-ताबीज पर

पथायल पिपनी पर

कत्ते ममत्व पथराइत रहतै

नै, नै चाही आर अधिक विस्तार 

महाकालक अजेगरी जीहक लेल निमूधन आहार

नै, नै चढ़ौतै आर बेसी

गामक कोनियाँ अनुरागक 

ठकुआ-भुसबाक अरग 

दिन-दिन अकाबोन सन 

भेल जा रहल महानगरक फूट-पाथ

ओ गामक पठरु आ टूनाक हेर 

चहाएल-छगाएल तकने फिरैए

नुकेबाक ठेकान 

अभावक ऐ अकाबोनमे 

नै, नै चाही विस्तार 

गनलो-गूथल निस्सन बीया

खेतक हरियरीक लेल बहुतो होइ छै

नै होइ छै उपजा 

घुनाएल ढाकी भरि बीहनि सँ

उसरि जाइ छै वंश 

लक्ष संख्य रावणक 

शतसंख्य कौरबोक 

आ बसि जाइ छै कोनो भारत 

वनकन्या शकुन्तलाक

एक्केटा बेटा भरतो सँ 

एक्केटा मनु सँ बसल छै ई दुनिया

भस्मसात भ' जाइ छै सगरक सहस्त्रों संतान

आ एकमात्र भागिरथो जमीन पर 

गंगा उतारै छै, एक्केटा बुद्ध झुका दै छै

अंगुलीमालक 

दुर्दान्त दस्यु बल के

आ एक्केटा सुरुज चिर्रीचोंत क' दै छै 

महान्धकार 

नै, नै चाही आर 

अनावश्यक विस्तार। 


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सभतरि पसरि गेल छै अन्हारक आतंक सभतरि पसरि गेल छै अन्हारक आतंक Reviewed by emithila on जनवरी 23, 2023 Rating: 5

10 टिप्‍पणियां:

  1. अद्भुत कविता सभ।जेना मोनकेँ मथि देलक। एतेक विलक्षण कवि सभ लेल किछु नहि कयल गेल। जकर शताधिक पोथी रहबाक चाहैत छल ओ नहि छपल।ई भाषाक दुर्भाग्य कहब।आह! सादर नमन!

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  2. टिप्पणी खास बनबैत ऐ एहि प्रस्तुति कें.

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  3. आह! राज भाय !अहांक मेहीं दृष्टिक कतेक विस्तृत फलक छल ,केहन गहन अनुभुति छल जाहि सं कविता आ गीतक पांती मे ओकर मर्म आ प्रतिकार दूनू एक संग उभरि लोकगीता सन सिद्ध वचन मोन मस्तिष्क पर अंकित भ जाइत छैक...हमर श्रद्धा सुमन जतहि छी ओतहि स्वीकार हो🙏🙏

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  4. महत्वपूर्ण । अप्रतिम कवि -गीतकार - कथाकार केँ सादर नमन। समकालीन प्रखर कवि विकास वत्सनाभक महत्वपूर्ण पर टिप्पणी उत्तम अछि। ठोस -दृष्टिसंपन्न।

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  5. यथार्थ लोक कवि 🙏🏽

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  6. सभतरि पसरल छै अन्हारक आतंक
    मात्र इ उल्लूक हेंज चिचियाइत छै इजोत इजोत!
    आह! अद्भुत
    🙏

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  7. विनम्र श्रद्धांजलि राज भाइ कें।

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  8. शिवशंकर श्रीनिवाससोमवार, जनवरी 23, 2023

    सादर नमन।

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  9. दिलीप कुमार झामंगलवार, जनवरी 24, 2023

    फेरसँ नीक आरंभ।मैथिलीक महत्वपूर्ण कवि राजपर विकासजीक महत्वपूर्ण टिप्पणी।कविता सबहक चुनाव सुन्दर।धन्यवाद।

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