सृजनात्मक स्वतंत्रताक किछु पक्ष-विपक्ष

पावेल कुचिंस्कीक चित्र 
जरूरी बेसी तकर नहि जे किछु लिखल जाय, बेसी जरूरी एकर अछि जे लिखबा सँ पूर्व बहुत रास पढ़ल जाय. साहित्य जगतक विभिन्न रास कथा-उपकथादि सँ परिचय-पात बढ़ाओल जाय. देखल कि गेल अछि जे अधिकांश साहित्यसेवी मे स्वीकारोक्ति आ सेल्फ-जजमेंटक पैघ अभाव रहल अछि, जे कि  स्वयं मे बड्ड बेसी भयाओन स्थिति अछि. परिणामस्वरूप साहित्य आमलोकनिक मध्य, समाजक यथार्थ रूप केँ उपस्थापित करबा मे विफल रहल अछि. मैथिलीक समकालीन  कविता मे नीक दखल बनौनिहार 'मनोज शाण्डिल्य' एम्हर बहुत रास छिट-फुट गद्य आभासी जगत मे लीखि छोड़लनि अछि. तकर अंत कतय होएत से तँ वैह नीक जकाँ कहि सकैत छथि, तत्काल एहिठाम ओकरा सभ केँ एहि उद्देश्य सँ प्रस्तुत कयल जा रहल अछि कि ई जग्गह नीक बातक संवाहक बनि अपन भूमिकाक संग मिसियो न्याय क' सकय : 
मनोज शाण्डिल्य 
'सृजनात्मक स्वतंत्रताक किछु पक्ष-विपक्ष'
 - मनोज शाण्डिल्य 

[१]  
मनुक्खक अंतर्मन मे कतेको तरहक भावना निरंतरताक संग अनवरत बहैत रहैत छैक। कलकल बहैत नदी मे बहैत जाइत असंख्य नाह जकाँ। गीत गबैत, मुस्काइत, हँसैत, हँसबैत, कनैत, कनबैत, उद्द्वेलित करैत, आक्रोशित करैत, आनंदित करैत, मलहम लगबैत कतेको रंगक मनोभाव सदिखन बहैत रहैत छैक। रचनाकार एहि सभ केँ आत्मसात करैत शब्दबद्ध करैत अछि आ अल्हड़ सन बहैत भावना केँ अमरत्व प्रदान करैत अछि। संगहि अपनहु अमर भ' जाइत अछि।
तखन अचांचके अभरैत छैक एकटा विकराल गतिरोधक। हृदयविदारक। पहाड़ जकाँ सोझा ठाढ़ भ' जाइत छैक आ रोकि लैत छैक समस्त भावनाक प्रवाहकेँ। अपन जड़ता मे सभ किछुकेँ बान्हि लैत छैक आततायी। सभ किछु रुकि जाइत छैक, सभ किछु थमकि जाइत छैक। सभ बहाव बन्न, सभ प्रवाह बन्न। मनोभावकेँ आब शब्द नहि भेंटैत छैक, अमरत्व नहि भेंटैत छैक। कते किछु जेना मरि जाइत छैक एकहि संग, एकहि ठाम। मृत्यु एकसर कहाँ अबैत छै!

आ फेर एकटा विस्फोट होइत छैक। मृत्युक एहि भयाओन प्रहार सहियो क' जे भावना सभ बचा लैत अछि स्वयं केँ, से सभ हाथ मिलबैत अछि, बाँहि पुरैत अछि, जोर लगबैत अछि, आ ध्वस्त क' दैत अछि ओहि पहाड़ सन गतिरोधक केँ। युद्धक अंत होइत छैक। प्रवाह फेर स्थापित होइत अछि। जीवन फेर कलकल बहैत नदी बनि जाइत अछि। नाह सभ फेर चलि पड़ैत अछि, गीत गबैत अछि, हँसैत अछि, हँसबैत अछि। अमरत्व मृत्यु केँ पराजित करैत अछि।

धीर हो हे मन हमर, बढ़ैत चल, ने हो विकल
मुक्तिमार्ग पर पथिक चलल तँ रोकि के सकल..

[२]
अहाँ मैथिल छी। अहाँक एक पुत्र छथि (नहियो छथि तँ कनी कालक लेल मानि लिअ जे छथि)। ओ अहाँ केँ कहैत छथि जे ओ एखने सौराठक एक ब्राह्मण द्वारा बाजल मैथिली सुनि क' आबि रहल छथि। आ जें कि अहाँ सभ जे भाखा बजै छी तकर स्वरूप ओहि सौराठक ब्राह्मण द्वारा बाजल गेल मैथिली सँ कनी भिन्न बुझना जाइत अछि, तें आई सँ अहाँ सभक भाखाक नाम 'हुइंगजुइंग' भेल, 'मैथिली' नहि। तँ की एहन स्थिति मे अहाँ मानि लेबै जे अहाँक भाखा मैथिली नहि, हुइंगजुइंग अछि?
एहि ठाम अहाँक जे उत्तर होयत, सएह उत्तर 'अंगिका' आ 'बज्जिकाक' प्रसंग मे सेहो होयब उचित, खाहे अहाँ दड़िभंगा/मधुबनी सँ होइ आकि भागलपुर, सीतामढी, बेगूसराय, सहरसा, पूर्णिया, अररिया वा समस्तीपुर सँ।

[३]
फेसबुक पर प्रोफाइल चालू केना तँ बहुत दिन भेल, मुदा ढंग सँ सक्रिय भेलहुँ प्रायः दिसंबर २०१४ सँ। ई प्रोफाइल चालू करबाक उद्देश्य मूलतः साहित्यिक छल। अपन रचना सभ केँ अपन समाज धरि पहुँचायब आ साहित्यिक माहौल आ सत्संग मे अपन लेखनक धार तेज करब। आ एही उद्देश्य पर चलैत तहिए सँ अनवरत किछु ने किछु अपने सभक संग साझा करैत रहलहुँ अछि। किछु पोस्ट केँ छोड़ि दी तँ बाँकी सभ साहित्यहि सँ सम्बद्ध।
करीब दू बर्ख पहिने एकटा मित्र सँ मैसेंजर पर गपसप भ' रहल छल। ओही क्रम मे मित्र कहलथि जे किछु दिन पूर्व ओ मैथिलीक कतिपय वरिष्ठ रचनाकार सभक संग कोनो कार्यक्रमक क्रम मे कतहु बैसल रहथि। ओहि अनौपचारिक बैसार मे विद्वद्जन ई दुख प्रकट कएलन्हि जे फेसबुक सन निकृष्ट मंच पर साहित्य परसल जा रहल अछि। हुनकर सभक मंतव्य रहनि जे नीको रचनाकार फेसबुक पर अपन रचना पोस्ट कय फेसबुकिया लेखक भ' जाइत अछि, अर्थात् ओहि रचनाकरकेँ गंभीरता सँ नहि लेल जा सकैत अछि। हम चुपचाप सभ सुनलहुँ आ अंठा देलहुँ।
आब कनी वस्तुस्थितिकेँ देखल जाय। मूल प्रश्न ई जे कोनो रचनाकार रचना करैत किए अछि? लिखबाक उद्देश्य की होइत छैक? एहि प्रश्नक हमर उत्तर इएह जे हम अपन जनसाधारणक हेतु लिखैत छी, आम पाठकक लेल लिखैत छी। जँ हमर लेखन हमर पाठक केँ अपन समाज आ परिवेशक लेल सकारात्मक रूप सँ किछु बिचार करबाक दिस प्रेरित क' सकय तँ हमर लेखन सफल होयत, अन्यथा नहि। आ एहि लेल हमर रचना सभकेँ पाठक तक पहुँचब परमावश्यक भ' जाइछ।
आब प्रश्न ई उठैछ जे हमर रचना सभ जनगण तक पहुँचय कोना? मैथिली मे दैनिक पत्र एकहु टा नहि। गिनल-चुनल द्वैमासिक/त्रैमासिक/अनियतकालीन पत्रिका। अहू सभ मे रचनाकार अपन रचना पठओबथि तँ पहिने तँ रचना छपतनि कि नहि तकर कोनो ठीक नहि। जँ छपियो गेलनि तँ मैथिलीक पाठकीय स्थिति केँ देखैत ई कहब महाग मस्किल जे कते लोक तक पत्रिका पहुँचत। जिनका लग पहुँचबो करतनि ताहि मे सँ कए गोटा पन्ना उनटओताह, आ जे उनटयबो करताह ताहि मे सँ कए गोटा ओहि रचनाकारक रचना धरि पहुँचि सकताह। अर्थात, एहि बाटे रचनाकारक अपन पाठक धरि पहुँचब बड्ड कठिन।
तखन उपाय रहल पोथी छपा क' पाठक धरि पहुँचब। मुदा इहो कम कठिन नहि। जँ अहाँ कम-सम लिखैत छी तखन तँ कोनो तेहन बात नहि, मुदा जँ खूब लिखैत छी (जे कि कोनो गंभीर रचनाकार केँ अवश्य करबाक चाही) तखन समस्या ई जे कते पोथी छपायब? जँ छपेबो करब तँ कए टा प्रति छपा सकब? कए टा प्रति बेचि सकब? कते प्रति बिलहि सकब? मोट बात जे कते पाठक धरि अपन रचना पहुँचा सकब? हमरा जनैत एकर उत्तर कोनो खास संतोषजनक नहिए होयत।
आब फेसबुकक विकल्प (एतय ब्लॉग आ वेबसाइटकेँ सेहो गानल जा सकैछ) देखल जाय। नगण्य खर्च मे अधिकाधिक पाठक धरि रचना त्वरित रूप मे निःशुल्क पहुँचा देबाक क्षमता रखैछ ई माध्यम। आम पाठक सँ ल' क' प्रबुद्ध आलोचक धरिक प्रतिक्रिया सुलभ भ' जाइछ। जँ रचनाकार फूजल मानसिकताक होथि तँ अपन लेखन मे सुधार सेहो अपेक्षाकृत द्रुत गतिएँ आनि सकैत छथि। एकर अतिरिक्त पत्र-पत्रिका मे रचना छपयबाक आ कालक्रम मे पोथी प्रकाशित करबाक विकल्प तँ फूजल रहिते छैक, संगे इहो अंदाज लागि सकैत छैक (जँ उचित स्थान सँ मार्गदर्शन लेल जाय तँ) जे रचना सभक गुणवत्ता प्रकाशन योग्य अछि आकि एखन किछु आर साधना करबाक अछि। मूल बात ई जे रचनाकारक अपन उद्देश्य मे सफल होयबाक संभावना एहि माध्यम सँ निश्चित रूप सँ बढ़ैत छैक।
तैं, हम फेसबुकिया रचनाकार घोषित होइ आकि किछु आर, गंभीरता सँ लेल जाइ आकि नहि, यथासंभव अपन रचना सभ अन्तर्जालक माध्यम सँ अपने लोकनि धरि पहुँचओबैत रहब। बदला मे स्नेह, आशीष आ मार्गदर्शनक याचक बनल रहब। आगाँ भगवतीक कृपा रहलनि तँ पत्र-पत्रिका, पोथी-पतरा तँ होइते रहत। 

[४]
कष्ट होइए जखन देखैत छी जे अपना केँ फेसबुकक 'सेलिब्रिटी राइटर' बुझय बला किछु स्वघोषित 'विद्वान' लोकनि मात्र सस्ता वाहवाही लुझबाक लेल किछुओ अल-बल लिखैत रहैत छथि। कष्ट वस्तुतः एहि कारणें होइत अछि जे हमर किछु युवा प्रतिभा सभ एहन स्वयंभू 'स्टार' लोकनिक जाल मे अनचोक्केे फँसि जाइत छथि आ निरंतर बर्गलायल जाइत छथि। 

[५]
हमर ई दृढ़ मान्यता अछि जे पहिने स्थिति जे रहल हो, मुदा आब मैथिली केँ हिंदी सँ कोनो खतरा नहि छैक (जे खतरा छैक से ओहि भूतपूर्व मैथिल सँ छैक जे अपन अज्ञानतावश कहियो हिन्दीक बलात्कार कएलक आ आब अंग्रेजीक क' रहल अछि), उनटे हिंदी केँ मैथिली सहित समस्त क्षेत्रीय भाखा आ बोली सँ खतरा छैक आ तकरे ई महोदय पुष्टि क' रहल छथि।
हिंदी अछि कतय? बिहार मे बिहारी 'हिंदी', उत्तर प्रदेश मे उर्दू-अवधी-भोजपुरिया 'हिंदी', दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, कश्मीर, गुजरात, राजस्थान, महाराष्ट्र, हैदराबाद मे स्थानीय भाखाक संबल पर कोनहुना ठाढ़ 'हिंदी'। बाँकी पुबरिया आ दछिनबरिया प्रांत सभ में पूर्णतः नदारद। कनी-मनी जँ बाँचल अछि तँ से मध्यप्रदेश/छत्तीसगढ़ मे आ ओतहु किछु ने किछु 'लोकल फ्लेवर'क असरि छैके। अपन साहित्य पर दम्भ भरय बला एहि भाखा मे आइ 'नई वाली हिंदी' आ 'पुरानी वाली हिंदी'क राड़ि ठनल छै। हिंदी राष्ट्रभाषा नहि, मात्र भारत गणराज्यक राजभाषा थिक, आ सेहो थोपल, जकरा देशक बहुसंख्यक आबादी सोझे रिजेक्ट करैत अछि। आ ताहि पर सँ अंग्रेजीक आक्रमण। एना मे जँ 'हिंदी बचाओ मंच'क संयोजक केँ चिंता भ' रहल छनि तँ किम आश्चर्यम? वस्तुतः मैथिलीक बहन्ने ई महोदय समस्त भारतीय भाषा सभ पर फायर क' रहल छथि, आ सेहो खाली बंदूक सँ। की भेटतनि, अल्हुआ?
भारतक अनेक क्षेत्रीय भाषा आ बोली हिन्दीक श्रृंगारे टा नहि, प्राणवायु सेहो छैक। एकर सभक बिना हिंदीक सांस लेब असंभव। रहल बात विद्यापतिक, तँ हुनका हिंदीक पाठ्यक्रम मे घुसियओलक के? अपने ई लोकनि विद्यापतिक पयर पकड़ि मैथिली केँ हिंदीक बोली साबित करबाक दुष्प्रयास करैत रहलाह, आ जखन से नहि पार लगलनि तँ आब भारी बुझा रहल छनि। निकलबा लेथु विद्यापति केँ हिंदीक पाठ्यक्रम सँ, मैथिलीक लेल धनि सन।
हिंदी केँ लड़ाइ अवश्य लड़बाक छै, मुदा से कोनो आन भाषा सँ नहि, अपनहि जड़ता आ पूर्वाग्रह सँ। अंत मे एतबे कहब जे ई एहि कुंठाग्रस्त महोदयक व्यक्तिगत विचार मात्र छनि। विस्तृत हिंदी जगत मे मैथिलीक यथेष्ट मान-मर्यादा आ आदर-सम्मान छैक, आ से हम व्यक्तिगत रूप सँ अनुभव करैत रहैत छी। आ तहिना हमहूँ सभ हिंदीक प्रति प्रेमभाव रखैत छी, जेना अन्य कोनो भाषाक प्रति रखैत छी किएकि हम सभ ईर्ष्या मे नहि जरि रहल छी! बकौल चचा ग़ालिब:
हमको मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन
दिल के ख़ुश रखने को 'ग़ालिब' ये ख़याल अच्छा है

[६]
जमाना बड़ बदलि गेल छै। सूचनाक ओवरडोज़क जमाना छै। लोक आब वैह आ ओतबे बुझैत अछि जे आ जतबे ओ बुझैत चाहैत अछि। तह तक जयबाक पलखति ककरा छैक। अहाँ किछु लिखि लिअ, भावना अहाँक किछुओ हो, लोक ओकर अर्थ अपने हिसाबे लगायत। सकारात्मकता केँ नकारात्मकता मे बदलैत क्षणहु मात्र कहाँ लगैत छै आई-काल्हि।

अस्तु, जे हो, ताहि लेल हम कि अहाँ लिखब तँ नहिए छोड़ि देब। किए छोड़ब? हम तँ एतबे बुझैत छी जे पारस्परिक स्नेह आ विश्वास ने एक दिन मे बनैत छैक आ ने एक दिन मे बिगड़बाक चाही। शंकाक स्थिति मे ' बेनिफिट ऑफ डाउट' तँ बनिते छैक।

[७]
जँ ई कही जे मैथिली लेखकक परिस्थिति बद सँ बदतर भेल जा रहल अछि, तँ कोनो अतिशयोक्ति नहि होयत। मैथिली पोथीक विक्रय संबंधी समस्या तँ ठामहि अछिए, मुदा ई समस्या एतहि तक सीमित नहि अछि।
अहाँ अपन पेट काटि क', दरमाहा मे सँ पाइ निकालि क' पोथी छपबै छी आ सम्मानवश वरिष्ठ साहित्यकार लोकनि केँ अवलोकनार्थ पठबैत छियनि। किछु लोकनि केँ छोड़ि अधिकांशतः आशीर्वचनक तँ बातहि कोन, पोथीक प्राप्ति धरिक सूचना देब अनावश्यक बुझैत छथि। आ तखन जँ अहाँ अपनहि सँ फोन कय पूछि दैत छियनि जे पोथी प्राप्त भेल कि नहि, तँ हुनका अर्थ ई लगैत छनि जे ई लेखक हमरा सँ अपन प्रशंसा मे किछु लिखेबाक लेल तगेदा क' रहल छथि आकि कोनो तरहक लाभ प्राप्त करबाक लेल अपसियांत भेल छथि।

अपन वरिष्ठ साहित्यकार सभ सँ करबद्ध निवेदन जे सभ केँ एकहि रंग मे नहि रांगि दी। प्रशंसा सभ केँ नीक लगैत छै, मुदा एखनहु किछु एहन रचनाकार जीबि रहल छथि जिनकर लेखन किनकहु अनुकम्पा पर निर्भर नहि छनि। ई लोकनि अपने सभक सम्मान करै छथि, खुशामद नहि। कृपया सम्मानक अपमान नहि कयल जाय। हिनका लोकनि केँ जे कहबाक हेतनि से साधिकार सोझा-सोझी कहताह, घुमा-फिरा क' नहि। आश्वस्त रहै जाउ जे लोभमुक्त रचनाधर्मिता औखन साँस ल' रहल अछि। आ आगुओ साँस लैत रहत।

[८]

निरुद्देश्य आ स्वार्थजन्य लेखन साहित्यिक सृजन नहि, अपितु मूल्यवान समयक बलात्कार होइछ। अपनहुँ आ पाठकक सेहो। अनेरो चुबैत मोसि मात्र दाग-धब्बाक निर्माण क' सकैत अछि, आर किछु नहि।   







सृजनात्मक स्वतंत्रताक किछु पक्ष-विपक्ष सृजनात्मक स्वतंत्रताक किछु पक्ष-विपक्ष Reviewed by बालमुकुन्द on जुलाई 25, 2017 Rating: 5

कोई टिप्पणी नहीं:

Blogger द्वारा संचालित.