एकटा चम्पाकली एकटा विषधर


कथा ::
एकटा चम्पाकली एकटा विषधर
राजकमल चौधरी ■

दशरथ झाक परिवार बड्ड छोट आ आंगन बड्ड पैघ। पहिने सभ भाइ संगहि रहै छलाह। आब दशरथ झा एहि पुरान, पैघ, उजड़ल, भांग-धथूरक जंगल सँ भरल आंगन मे अपन स्त्री आ अपन सखा-सन्तानक संगें एकसरे रहि गेल छथि। दशरथक जीविका छनि-महींस। दुन्नू साँझ मिला क’ आठ-दस किलो दूधक प्रबन्ध एही एकटा महींस सँ होइत छनि। महींसक अतिरिक्त डेढ़ बीघा खेत, आर किछु नइं। स्त्री-रामगंजवाली घर-आंगन मे व्यस्त रहैत छनि, एकटा सन्तान स्कूल मे पढ़ैत छनि, दोसर सन्तान महींस मे, अर्थात महींस चरएबा मे, आ बारहम बर्खक अन्तिम चरण मे छन्दबद्ध, मुग्ध, सुशील, आज्ञाकारिणी, प्रसन्नमुखी मात्रा एकटा कन्या...
कन्याक नाम थिक, चम्पा।
शशि बाबू अप्पन बासठि बर्खक जीवन मे जखन पहिल बेर, अपन निकटस्थ पड़ोसिया आ दूर-दूरस्थ सम्बन्धी, दशरथ झाक आंगन मे, बीच आंगन मे आबि क’ ठाढ़ भेलाह, तँ चम्पा देबाल पर गोइठा सैंति रहल छलीह। रामगंजवाली छलीह इनार लग... शशि बाबू केँ देखिते ओ पानि सँ भरल बालटीन उठा क’, भनसाघर मे, सन्हिआ गेलीह। गामक सम्बन्धें शशि बाबू रामगंजवालीक श्वसुर स्थानीय छथि।
दशरथ झा हँसैत स्वर मे, खोशामदक तरंगित स्वर मे, बजलाह-एहन लाज करबाक कोन काज, शशि बाबू तँ अपन परिवारक लोक छथि... चम्पा, माइ केँ कहिअनु, एक लोटा पानिक प्रबन्ध करतीह। पानि माने, गरम पानि।
-गरम पानि किऐ, बाबूजी?-संयत स्वर मे चम्पा प्रश्न कएलनि। नहुँए स्वर मे भनसाघर सँ चम्पाक माइ बजलीह-गरम पानि माने, चाह। चम्पा, अहाँ दोकान सँ चाह आ चिन्नी ल’ आनू। हम पानि चढ़ा दैत छी।
दोकान जएबाक दुख सँ बेसी दुख आन कोनो काज मे चम्पा केँ नइं होइत छनि। प्रत्येक बेर बजारक कोनो दोकान सँ घुरबा काल चम्पा सप्पत खाइत छथि, जे मरि जाएब, मुदा आब कहियो कोनो वस्तु उधार अनबाक हो, चाहे एक कनमा सुपारी, चाहे एक सेर कड़ू तेल-चम्पे दोकान पठाओल जएतीह। चम्पा विरोध करतीह-हम नइं जाएब। जुगेसरक सवा टा टाका बाँकी छै। ओ हमरा उधार नइं देत।
मुदा, माइ कहथिन, किंवा दशरथ बजताह-अहाँ नइं जाएब, तँ आन के दोकान जाएत? ...चम्पा, जुगेसर केँ कहबैक जे ओकर टाका हम पचा नइं जएबैक। काल्हिए हमर अल्लू उखड़त। हम अल्लू बेचि क’ ओकर टाका द’ देबैक।-चम्पा केँ बूझल छनि, जे बाबूजी एक्को कट्ठा अल्लू रोपने नइं छथि। चम्पा केँ बूझल छनि, जे बाबूजी एहिना जखन-तखन छोट-छोट बातक लेल मिथ्या बजैत छथि, फूसि बजैत छथि, सरासरि फूसि...।
मुदा, दछिनबारी टोलक सभ सँ प्रतिष्ठित लोक आंगन आबि गेल छथि, पहिल बेर आएल छथि-बाबूजी केँ शशि बाबू सँ निश्चय कोनो आवश्यक बेगरता छनि-चम्पा एतबा गप्प अवश्य बुझि रहल छथि। एतबा गप्प बुझबाक स्त्री-सुलभ क्षमता हुनका मे छनि। अतएव, चम्पा माइ केँ बिना कोनो उत्तर देने, जुगेसर-बनियाँक दोकान दिस चलि गेलीह-भगवतीक प्रतिमा सन सुन्नरि, अल्प बयसक बुधियारि आ सुशील कन्या, चम्पा! आ शशि बाबूक संगें दशरथ पुबरिया कोठली मे चलि गेलाह। चम्पा, चम्पाक माइ आ दशरथ एही घर मे रहै छथि।
देवाल पर एकटा पुरान कैलेन्डर टाँगल अछि। कैलेन्डर मे अंकित अछि, द्रौपदी-चीर-हरणक एकटा प्रचलित चित्र। शशि बाबू जेना दशरथ सँ कोनो महत्त्वपूर्ण गप्प सुनबाक लेल प्रतीक्षा करैत, बड़ी काल धरि एहि चित्र दिस तकैत रहि जाइत छथि। द्रौपदी विवश छथि, विवस्त्रा छथि... क्रोध सँ उन्मत्त दुःशासन, गर्व सँ आन्हर भेल सुयोधन, ग्लानि आ संताप सँ माथ नीचाँ खसौने, लज्जित पाँचो पाण्डव... आ ऊपर सँ द्रौपदीक देह पर थानक थान साड़ी खसबैत श्री कृष्ण...।
राधारमण भगवान श्रीकृष्णक कैलेन्डरक चित्र मे मधुर-मधुर मुस्का रहल छथि।
शशि बाबू सेहो मोने-मोन मुस्कएलाह। बजलाह किछु नइं, मुदा, दशरथ केँ एतबा गप्प बुझबा मे कोनो भांगठ नइं, जे हमरा आंगन मे आबि क’, हमरा कोठली मे एहि पुरान पलंग पर बैसि क’ शशि बाबू प्रसन्न छथि। एही प्रसन्नताक आवश्यकता दशरथ झा केँ छनि। शशि बाबू किछुए बर्ख पहिने धरि पुर्णियाँ जिला कचहरी मे हेड किरानी छलाह। आब स्थाई रूपें गामे रहै छथि। शशि बाबूक परिवार बड्ड पैघ। दू टा विधवा बहिन, तीन स्त्री सँ चारिटा पुत्र, आ चारू पुत्रक अपन-अपन छोट-पैघ परिवार। भिन्न-भिनाउज एखन धरि नइं भेल छनि। शशि बाबू जाबत जीवित छथि बँटवारा असम्भव।
तीन बेर विवाह करबाक उपरान्तो, शशि बाबू सम्प्रति स्त्री-विहीन छथि। तेसर स्त्री पाँचे बर्ख पहिने स्वर्गवासी भेलि छथिन। आब शशि बाबू वृद्ध भ’ गेल छथि, तथापि, परिवारक आ टाका-पैसाक सभटा कारबार ओ स्वयं करैत छथि, स्टील-सन्दूकक चाभी ओ एखनो अपने जनौ मे रखैत छथि।
अहाँ हमर उद्धार नइं करब, तँ आन के उद्धार करत।-एही प्रेम-वाक्य सँ दशरथ अप्पन गद्य प्रारम्भ कएलनि। शशि बाबू जेब सँ पनबट्टी बहार क’ पान-जर्दा खा रहल छलाह। पनबट्टी बन्द क’ जेब मे रखलाक बाद, बजलाह-हमरा सँ जे सहायता भ’ सकत, हम अवस्स करब मुदा, अहाँ स्पष्ट कहू, अहाँ केँ कतबा टाका चाही। ...कम सँ कम अहाँ केँ कतबा टाका...
दशरथ झा मोने-मोन हिसाब लगबैत छथि। चम्पाक विवाहक हिसाब। शशि बाबू सँ कतबा टाका पैंच मंगबाक चाही? कतबा टाका ओ द’ सकैत छथि? पाँच सै? सात सै? एक हजार? दशरथ झा केँ बेटीक विवाह कोनो साधारण परिवार मे करबाक हेतु अन्ततः दू हजार टाका चाही। हिसाब जोड़ि लेलाक बाद, दशरथ बजलाह-पहिने चाह पीबि लेल जाए। टाका-पैसाक गप्प तकरा बाद कहब। हम की कहब, रामगंजवाली स्वयं अहाँ सँ गप्प करतीह। अहाँ सँ की नुकाएल अछि... अहाँ सँ कोन लाज... अहाँ हमर अप्पन लोक छी।
चम्पाक लेल एकटा परम उपयुक्त वर दशरथ झा टेबने छथि। वरक पिता सँ दशरथ झा केँ मित्राता छनि। भरथपुर गाम, सहरसा सँ तीन कोस उत्तर। वर सहरसा काॅलेज मे बी. ए.मे पढ़ैत अछि। रामगंजवाली विवाहक सभटा खर्च मोने-मोन निर्णय कएने छथि। जँ दस कट्ठा बेचि देल जाए, तँ पन्द्रह सै टाका अवश्य भेटत। तीन टा अशरफी घरे मे अछि। जँ शशि बाबू पाँचो सै टाकाक व्यवस्था क’ देथि...
चाह आ चिन्नीक पुड़िया माइ लग राखि, चम्पा ओसार पर ठाढ़ि छथि। साँझ पड़बा मे आब कम्मे देरी अछि। आइ दुपहर खन पानि पड़ल छल-मूसलाधार वर्षा। आंगन मे थाल... सड़क पर थाल... चम्पा दोकान जाइत काल पिछड़ि क’ खसि पड़ल छलीह। माइ कहलखिन-अहाँ साड़ी बदलि क’ केश बान्हि लिअ’ ...जल्दी करू। शशि बाबू बेसी काल नइं बैसल रहताह। केश बान्हि लिअ’ ...ओसनी पर ललका साड़ी राखल अछि, से पहिरि लिअ’ ...जल्दी करू। शशि बाबू केँ चाह आ पान द’ अबिअनु।
चम्पा इनार लग चल गेलीह। बालटीन मे पानि भरलनि। बड़ी काल धरि हाथ-पैर धोइत रहलीह। केहुनी मे लागल हरैद’क दाग छोड़ौलनि। कनपट्टी लगक मैल... भौंह परक मैल... मुदा, चम्पाक देह मे मैल कोनो ठाम नइं छनि, मात्र मैलक भ्रम छनि हुनक मोन मे। कनिएँ काल पहिने दोकान लग खसि पड़लि छलीह, तँ अभिमन्यु चैधरीक भातिज, परीक्षित कतेक जोर सँ हँसल छल... लाजें रंगि गेल छलीह चम्पा, लाज सँ, क्रोध सँ, अपमान सँ आरक्त भ’ गेल छलीह। सन्देह भेल छलनि, परीक्षित कोनो अपशब्द सेहो बाजल अछि। यद्यपि परीक्षित मात्र हँसले टा छल, बाजल नइं छल। चम्पा एहिना एही अल्पवयस मे सदिखन, मैलक भ्रम सँ, अपशब्दक सन्देह सँ, अपमानक सन्देह सँ व्यथित आ चिन्तित होइत रहै छथि।
हाथ-पैर धोलाक बाद ललका साड़ी आ ललका आँगी तकबाक हेतु चम्पा भनसाघरक ओसार पर अएलीह। माइ कहैत छथि, तँ मुँह मे पाउडर लगा क’ केश थकड़ि क’ ललका साड़ी पहीरि क’ शशि बाबूक हाथ मे चाहक पेयाली देबैए टा पड़त। माइ जे कहथि, सैह करबाक चाही। सैह करैत छथि चम्पा। इच्छा नहियों रहै छनि, तैयो करैत छथि... जेना दोकान सँ उधार आनब, जेना ललितेशक आंगन जाएब... जेना एही तरहक आन कतेको काज करबाक इच्छा चम्पा केँ नइं होइत छनि। चम्पा ओहि कोठली मे प्रवेश नइं कर’ चाहैत छथि, जाहि मे पलंग पर बैसल छथि शशि बाबू आ निहोरा-मिनतीक मुद्रा मे एकटा पीढ़ी पर नीचाँ मे बैसल छथि चम्पाक बाबूजी, दशरथ झा। चम्पा केँ लाज नइं होइत छनि, होइत छनि ग्लानि, आत्मवेदना, जे बाबूजी एहन लोक किऐ छथि, एहन दरिद्र आ एहन क्षुद्र... बाबूजी पलंग पर किऐ नइं बैसल छथि? ...कोन स्वार्थक कारणें एखन शशि बाबूक लेल चाह बनाओल जा रहल अछि? ...माइ एतेक अस्त-व्यस्त किऐ छथि?
अपने बैसल जाओ, हम दू मिनट मे अबैत छी-एतबा कहि क’ दशरथ कोठली सँ बाहर भ’ ओसार पर अएलाह, लोटा हाथ मे लेलनि, आ आँगन सँ बहरा गेलाह। शशि बाबू द्रौपदी-चीर-हरणक कैलेन्डर देखि रहल छथि, आ विचारि रहल छथि जे दशरथ झा केँ टाका देल जाए, किंवा नइं देल जाए। बेसी संभावना तँ एही बातक अछि, जे टाका डूबि जाएत। मुदा, जँ टाका नइं देल जाए, तँ चम्पाक बियाह कोना होएतैक? ...आ दशरथ चल कत्त’ गेलाह? ओ कहैत छलाह जे रामगंजवाली अपने हमरा सँ गप्प करतीह। ओ किऐ करतीह गप्प?
आगू-आगू रामगंजवाली, एक हाथ मे हलुआक छिपली, दोसर हाथ मे पानिक लोटा-गिलास नेने आ हुनका पाछू मे नुकायलि जकाँ, लाल साड़ी आ लाले आँगी पहिरने, बड्ड सकुचायलि, बड्ड लजबिज्जी चम्पा...
रामगंजवाली घोघ नइं तनने छथि। पैघ-पैघ आँखि मे सुन्दरता अवश्य छनि मुदा, स्त्री-सुलभ लज्जा नइं। लज्जा स्त्राी-आँखिक आन्तरिक ज्योति थिक... रामगंजवालीक आँखि जेना पाथरक बनाओल गेल हो, सुन्दर, किन्तु, जकरा मे कोनो आकर्षण-शक्ति नइं। चम्पाक हाथ सँ चाहक पेयाली लैत काल शशि बाबू अनुभव कएलनि जे चम्पाक हाथ थरथरा रहलि छनि... जे चम्पाक अंग-अंग काँपि रहलि छनि। सौंसे कपार घाम सँ भीजल... दुन्नू आँखि जेना नोर सँ झलफल-झलफल करैत... शशि बाबू अनुभव कएलनि, जँ कनियों काल चम्पा एहि ठाम ठाढ़ि रहतीह, तँ ठामहि झमा क’ खसि पड़तीह, बेहोश भ’ जएतीह।
माइक कोनो नव आज्ञाक प्रतीक्षा चम्पा नइं कएलनि। चाहक पेयाली शशि बाबूक हाथ मे देलाक उपरान्त, चम्पा माइ दिस उपेक्षाक तीक्ष्ण दृष्टि सँ देखैत, चुपचाप कोठली सँ बहरा गेलीह, आंगन मे एक छन ठाढ़ि रहलीह, आ आंगन सँ बहरा क’ अपन सखी, अन्नपूर्णाक आंगन दिस चलि गेलीह। चम्पा जखन बड्ड दुख मे डूबलि रहै छथि, तखन चुपचाप अन्नपूर्णाक घर मे जा क’ सूति रहै छथि।
दशरथ टाकाक विषय मे किछु नइं बजलाह... कतेक टाका चाही, आर की-की, से तँ अहीं सभ कहब-शशि बाबू चम्पाक तीव्र पलायन सँ एक रत्ती अप्रतिभ, आ एकरत्ती निश्चिन्त होइत, समीप मे ठाढ़ि भेलि, रामगंजवाली सँ जिज्ञासा कएलनि-दशरथ कहाँ छथि?
रामगंजवाली बजलीह-ओ बथाने दिस गेल छथि। अबिते होएताह... मुदा, हुनका रहला सँ की, आ हुनका नहिएँ रहला सँ की... हुनका अहाँ सँ कोनो गप्प कहैत लाज होइत छनि। ओ नइं कहताह। हमहीं कहब। चम्पा हमर बेटी थिक; हम चम्पाक माइ छी। बेटी पर माइए टा केँ अधिकार होइत छै, बापक कोनो अधिकार नइं। माइ अपन बेटीक लेल प्राण दैत अछि। हमहूं दैत छी। तें, हमहीं अहाँ सँ गप्प करब।
रामगंजवालीक एहि निद्र्वंन्द्व, ओजस्वी आ स्पष्ट भाषण सँ शशि बाबू मोने-मोन सशंकित होइत छथि-की कह’ चाहैत छथि दशरथक स्त्री?-शशि बाबू कनिएँ सम्हरि क’ बैसैत छथि, अपन पीठ तर तकिया राखि लैत छथि। दशरथ किऐ चल गेलाह? चम्पा किऐ पड़ा गेलीह? किऐ रामगंजवाली एतेक निकटता सँ आ एत्तेक भूमिका बान्हि क’ गप्प क’ रहलि छथि? शशि बाबू गामक लोक नइं छथि, सभ दिन शहरे-बजार मे रहलाह। शहरक लोक छथि शशि बाबू। नोकरी तेयागि क’, आब स्थायी रूपें गाम आएल छथि। गामक रीति-रेवाज, गामक राजनीति, गामक लोकक आचार, भाषा, आ व्यवहार बूझल नइं छनि। तें रामगंजवालीक भूमिका केँ बुझबाक उचित क्षमता शशि बाबू केँ नइं छनि।
शशि बाबू पानक बीड़ा उठौलनि। जर्दाक डिबिया खोललनि। असली गप्प सुनबाक प्रतीक्षा कर’ लगलाह। रामगंजवाली एक बेर आंगन सँ भ’ अएलीह। चम्पा कत्त’ गेल? कोनो पड़ोसियाक आंगनक कोनो स्त्री कोनटा लग तँ ठाढ़ नइं अछि? रामगंजवाली घुरि क’ कोठली मे अएलीह।
-आब हमरा देरी होइत अछि। ...दशरथ कहाँ छथि?-शशि बाबू प्रश्न कएलनि। रामगंजवाली मुस्कएलीह। बजलीह-चम्पाक बियाह मे नहियों किछु तँ दू-सवा दू हजार टाका लागत। हमरा सभ केँ मात्र एक बीघा दस कट्ठा खेत अछि। आ, एकटा महींस अछि। जँ दस कट्ठा खेत बेचब तँ एक हजार टाका भेटत। जँ महींस बेचब तँ भेटत पाँच सै टाका।
शशि बाबू बीच मे टोकलखिन-महींस किऐ बेचब? खेत किऐ बेचब? आ बेचि लेब तखन जीवन कोना चलत?
रामगंजवाली संभवतः इएह प्रश्न सुन’ चाहैत छलीह। तें ई प्रश्न सुनि क’ ओ हँसलीह, जेना कोनो सुखान्त नाटकक नायिका-अभिनेत्री हँसैत अछि, ताही तृप्त मुद्रा मे हँसि क’ रामगंजवाली बजलीह-अहाँ उचित कहलहुँ, जखन ई सभ बेटीक बियाह मे बेचिये लेब, तखन जीवन नइं चलत। अपने लात अपन पेट पर मारब उचित नइं, एतबा हम बुझैत छी। तें हम सभ, माने हमर मालिक, हम, आ हमर बेटी, चम्पा अहाँक शरण मे आएलि छी। ...अहीं, मात्रा अहीं हमरा सभक उद्धार क’ सकैत छी।
-अहीं हमरा सभक उद्धार क’ सकैत छी-रामगंजवालीक मुँह सँ ई गप्प सुनि क’ शशि बाबू विरक्त भ’ गेलाह। क्रोध भेलनि, जे हम किऐ एहि ठाम समय नष्ट क’ रहल छी। काल्हिए-परसू सँ दशरथ झा हजार बेर एहि वाक्यक आवृत्ति कएने छथि, जे शशि बाबू हुनक आ हुनक परिवारक उद्धार क’ सकैत छथि।
जखन कि उद्धार करबाक हेतु नइं, एकटा आन स्वार्थ सँ शशि बाबू एहन असमय मे, एहन एकान्त मे दशरथ झाक आंगन आएल छथि। शशि बाबू योजना बना क’ कोनो काज करैत छथि। जीवन-रूपी शतरंज कोना खेलाएल जाए, कोना जीवित मनुष्य सभ केँ काठक पेयादा, किंवा काठक हाथी-घोड़ा बनाओल जाए, से मर्म हुनका बूझल छनि।
शशि बाबू केँ घरडीहक स्थान बड्ड कम्म। परिवार बड्ड पैघ। आ, दशरथ झाक आंगन शशि बाबूक देबाल सँ सटले छनि, पश्चिम दिस। जँ दशरथ झा अपन आंगनक पुबरिया हिस्सा सँ बारह धूर जमीन शशि बाबूक हाथें बेचि लेथि, तँ तकर मूल्यक रूप मे चम्पाक विवाह मे हजार-बारह सै टाका देबा मे शशि बाबू केँ कोनो कष्ट नइं हेतनि। ...शशि बाबू उद्धार करबाक लेल नइं, बारह धूर घरडीह किनबाक लेल दशरथक आंगन आएल छथि। अस्तु, रामगंजवालीक गप्प सँ हुनका कोनो प्रसन्नता नइं भेलनि। ओ विरक्त भेलाह जे रामगंजवाली मूलकथा पर नइं आबि, व्यर्थ समय नष्ट क’ रहल छथि... लोक अनेरे सन्देह करत जे शशि बाबू किऐ अपन पड़ोसियाक आंगन मे एत्तेक कालधरि एकान्त कोठली मे बैसल छथि। बड़ी कालक उपरान्त अपन मोन केँ स्थिर क’, किंचित गम्भीर मुद्रा बना क’ कनिएँ हतप्रभ जकाँ, रामगंजवाली बजलीह-हम खेत नइं बेचब, घरडीह नइं बेचब, महींसो नइं बेचि सकैत छी। हमरा एक्केटा चम्पा नइं अछि, आनो सन्तान अछि। तकरा सभक मुँह मे जाबी नइं लगाओल जा सकैत अछि।
शशि बाबू पुछलखिन-घरडीह नइं बेचब, तँ की करब? कत्तेक टाका लेब हमरा सँ?
रामगंजवाली उत्तर देलखिन-अहाँ सँ बेसी नइं, पन्द्रह सै टाका हम सभ लेब। पन्द्रह सै टाका नगद, आ अपना मोने चम्पा केँ अहाँ जे गहना, कपड़ा, साड़ी, जे देबै, से अपना मोने। अहाँ सन धनीक, बुझनुक, आ विद्वान लोकक संगें चम्पा भरि जीवन सुखी रहती, भरि जीवन आनन्द करती...
-अहीं हमरा सभक उद्धार क’ सकैत छी-शशि बाबू आब एहि गप्पक असली अर्थ बुझि गेलाह। एही कारणें एतेक भूमिका बान्हल जा रहल छल। शशि बाबू स्वयं चम्पा सँ बियाह करथि-से दशरथ झा, आ रामगंजवालीक उद्देश्य। ई योजना स्वयं रामगंजवाली बनौने छथि। जँ साठि बर्खक स्वस्थ, सुन्दर, पराक्रमी वृद्ध, शशि बाबू, तेरह बरखक आत्ममुग्ध, लज्जामयी, स्पर्शहीन, नवीन चम्पा-कली सँ बियाह करताह-तँ शशि बाबूक सम्पूर्ण राजकाज, सम्पूर्ण धन-सम्पत्ति पर रामगंजवालीक आ दशरथ झाक पंजीकृत अधिकार, अर्थात एकाधिकार भ’ जएतनि, आ महारानी जकाँ, वृद्ध शशि बाबूक संसार मे पटरानी जकाँ राज करतीह हमर चम्पा, हमर चम्पा-कली।
चाह देबाक लेल चम्पा आएल छलीह। शशि बाबू केँ अवस्से पसिन्न भेल छथिन हमर कन्या, हमर दुलारि-सुकुमारि कन्या। एहन पैघ-पैघ आँखि, एहन सरल-निश्छल स्वभाव, एहन बुद्धि-विचार गाम भरि मे आन कोनो धीया केँ नइं छै।
एक बेर अपने दलान पर अपन मित्र-मण्डलीक समक्ष हास्य कएने अवस्स छलाह शशि बाबू। कहने छलाह, जे मोन होइत छनि जे फेर एकटा विवाह क’ लेथि। मुदा, ई गप हास्ये छल, विनोदे छल, सत्य नइं। विवाह करबाक, बासठिक एहि विचित्रा बयस मे, विवाह करबाक कोनो आकांक्षा शशि बाबू नइं रखैत छथि। मुक्त-हृदय लोक छथि ओ, आब कोनो जाल-जंजाल मे नइं पड़ताह।
अतएव, पलंग सँ नीचाँ उतरि क’, धरती पर ठाढ़ होइत, शशि बाबू कठोर आ कठिन स्वर मे बजलाह-अहाँक गप्प हम सुनलहुँ। ...दशरथ झा केँ अहाँ कहि देबनि, हम एतेक मूर्ख नइं छी। बेसी नइं, चम्पा हमर बेटी, कल्याणी सँ बाइस बर्ख छोट छथि, आ हमर बेटीक बेटी, मुन्नी सँ चारि बर्ख छोट छथि। हम चम्पा सँ कतेक बर्ख पैघ छी? अहाँक पति देवता, दशरथ झा हमरा सँ कतेक बर्ख छोट छथि, रामगंजवाली? ...अहाँक मोन मे एहन विचार कोना आएल?
रामगंजवाली परम विषाक्त आ परम विरक्त दृष्टि सँ एक बेर शशि बाबू दिस तकलनि। शशि बाबू आतंकित भ’ गेलाह। जेना हुनक सोझाँ मे कोनो स्त्री, कोनो रामगंजवाली कनियाँ ठाढ़ि नइं हो, जेना हुनका सोझाँ मे फन काढ़ने, कोनो विषधर ठाढ़ हो... कोनो भयावह विषधर...
रामगंजवाली शशि बाबू केँ कोनो उत्तर नइं देलखिन। कोनो वाक्य नइं, कोनो शब्द नइं, विषधरक उत्तर होइत छै ओकर विष, ओकर विषदन्त!
मुदा, विधिक ई केहन विधान अछि, जे एहि सामाजिक घटना मे, शशि बाबू विषधर नइं छथि, विषधर छथि चम्पाक माइ, रामगंजवाली!

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राजकमल चौधरी (13 दिसम्बर 1929-19 जून 1967) मैथिली- हिंदीक लब्धप्रतिष्ठित कवि-साहित्यकार छथि। स्वरगंधा, कविता राजकमलक, ललका पाग, कृति राजमकलक, एकटा चम्पाकली एकटा विषधर, साँझक गाछ आदि हिनक प्रमुख कृति छनि। प्रस्तुत कथा एतय सँग्रह 'साँझक गाछ' सँ साभार प्रस्तुत अछि।

एकटा चम्पाकली एकटा विषधर एकटा चम्पाकली एकटा विषधर Reviewed by बालमुकुन्द on जुलाई 03, 2015 Rating: 5

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