दड़िभंगा टावर लग विश्वास बाबूक होटल. देबाल पर टाँगल लिप्टन कंपनीक नवका कैलेंडर.
बड़ी काल सँ देखि रहल छी- चाहक हरियर-हरियर पत्ती बिछैत, खसिआ जातिक छौड़ी, अत्यंत उघरल, मांसल चित्र...
छौड़ी आगू नमरल अछि, वक्षक अग्रभाग मे गँहीर धारी पड़ि गेल छैक. चित्रकारक अंतर्दृष्टि तूलिका केँ वस्त्रक भीतर धरि घीचिक' ल' गेल छैक, ई थिक कला!
लिप्टनक सुस्वादु चाहक संगे चाहक पात बिछैवाली छौड़ीक मांसल, श्याम देहक संस्पर्श. कला गुरू मम्मट कहने छलाह- कलाक उदेश्य थिक रसोद्रेक! तेसराँ, अनुजवर्गक उपनयन संस्कार मे गाम गेल छलहुँ. हमरा दलानक पछुआड़ मे जे छौड़ी गोइठा ठोकि रहल छलि, सेहो एही चाहवाली छौड़ी सन छलि. उठल बाँहिक निम्न भाग मे एहिना हमर दृष्टि जड़ भ' गेल छल. अपन फाटल नूआ मे वक्षभाग समेटि लेबाक ओकर असफल चेष्टा एखनहुँ स्मरण अछि. मुदा, कैलेंडर परक एहि चाहवाली छौड़ीक उन्नत वक्ष केँ पसरल आँचर मे के समेटि देतैक?
होटलक नौकर लग आबिक' बाजल -'मालिक, चारि आना दू कप चाहक भेल, आ दस पैसा दू टा सिकरेटक.
कलाक संसार सँ सत्यक दिशा मे...
हमरा सोझाँ टेबुल अछि, टेबुल पर चाहक खाली प्याला, प्याला मे सिगरेटक मिझाएल टुकड़ी.
हमर सोझाँ मे रेडियो बाजि रहल अछि, गीत उठि रहल अछि- ले के पहला-पहला प्यार, जादू-नगरी से आया है कोई जादूगर...
गीत सुनि क' चाहवाली छौड़ी मोन पड़ैत अछि. चाहक पत्ती बीछि क' ओ चाह बगानक बड़ा बाबू लग जायत. बड़ा बाबूक गारि सुनि क' कुली सभक मेट लग जायत. मेट लग सँ जायत अपन घर. जत' ओकर बेमार बेटी कनैत-कनैत सूति रहल छैक...एक कप चाह आर लाबह' - हम बजैत छी.
लिप्टनक कैलेंडर, कैप्सटनक सिगरेटक पसरैत धुआँ, चाहक प्याला पर प्याला, होटलक नौकर आ हम. ई सब जिनगीक पहिया थिक, एकरा रोकब संभव नहि. किएक तँ एहि पहिया सभक धूरी थिक - रूपैआ, रूपैआ!
अट्ठाइस-उनतीस बर्खक एकटा स्त्री, पंजाबिन युवती, शरणार्थी युवती, हिन्दू-मुस्लिम दंगा मे जकर सभ किछु, भूत, भविष्य, वर्तमान झरकि गेल छैक, हमरा लग आबि ठाढ़ भ' गेल. बाजलि, हँसैत बाजलि- 'बाबू, एक कप चाय पिला दो !
हम भवभूतिक नाटक पढ़ने छी. ईहो जनैत छी, "यत्र नार्यास्तु पूजयन्ते रमन्ते तत्र देवता: ".
मुदा, ई लज्जाहीना, मर्यादाहीना, सतीत्वहीना स्त्री की पूजाक योग्य थिक?
ई स्त्री तँ भवभूतिक मालती, मदयन्तिका, कामान्दकी, बुद्धरक्षिता, लवंगिका, अवलोकिता आ सीताक नामो नहि सुनने हएत.
होटल मे बैसल सभ व्यक्ति उचकि-उचकि क' आँखि वक्रक क' कटाक्ष करैत, शरणार्थिनीक चित्थी-चित्थी भेल नूआक पार्श्व सँ स्पष्ट होइत अंग अंग केँ देख' लगलाह.
अकस्मात् चाहक पिआसलि स्त्री हमरा सोझाँ मे लागल कुर्सी पर बैसि गेलि. हँसैत आँखि नचबैत बाजलि- 'चाय पिला दो बाबू, सुबह से नहीं पिया है'.
साँझक हल्लुक अन्हार चारूकात पसरि गेल. साँझक हल्लुक बसात, हल्लुक सिहकी, हल्लुक आलस्य हमरा शरीर मे पैसि गेल.
निर्लज्ज भ' क' कहलिअइ -'विश्वास बाबू, दू कप चाह पठा दिअ'.
चाह आबि गेल.
भूखल गाय जकाँ ओ चाह सुड़क' लागलि. हमहूँ संग दैत ओकर अंग भंगिमा देखैत रहलहुँ.
आधा कप चाह समाप्त क' बाँहि सँ ठोर पोछैत ओ बाजलि- 'बाबू आप कहाँ रहता है ? क्या करता है ?'
ताहि सँ तोरा कोन काज ? प्रश्न केलियैक.
उत्तर भेटल- आप बहुत अच्छा आदमी है. ऐसे तो कोई बिना बाँह पकड़े एक पैसा भी नहीं देता है'. उत्तर द' क' कुर्सी सँ ससरल मैल रेशमी साड़ीक आँचर उठबैत कुर्सीक पीठ मे ओंगठैत, देह मोड़ैत आ मधुर भावे हमरा दिस ताकि मुस्कायलि.
क्षण मात्र मे स्त्रीक असंख्य चित्र हमरा आँखि मे पसरि गेल- नाच करैत स्त्रीक चित्र, कथकलीक मुद्रा मे दहिना पयर उठौने, गरदनि टेढ़ कयने, आँगुर छितरेने, बाँहि मोड़ने, पुष्ट पीन वक्ष हिलबैत स्त्रीक चित्र. गृहस्थ स्त्रीक चित्र, केबाड़क अ'ढ़ सँ सड़क दिस तकैत, स्वामीक प्रतीक्षा करैत, सासु-ननदि सँ झगड़ा दन्न करैत, पतिक पएर धोइत, बालक केँ दूध पीयाबैत, देअर सँ हँसी ठठ्ठा करैत स्त्रीक चित्र. अशोक वाटिका मे राक्षसी सभक मध्य बैसलि, सीताक चित्र. हरिणक शावक केँ सिनेह सँ खेलबैत, शकुन्तलाक चित्र. अभिमन्युक शव लग विलाप करैत, उत्तराक चित्र.गौतम पुत्र राहुल केँ कथा-पिहानी सुनबैत, यशोधराक चित्र.
मुदा, अपरचित युवक सँ ओकर बासाक पता पुछैवाली ई युवती के थिक ? की एकर इतिहास ? की एकर भविष्य ?
कथाकार ललितक गल्प 'मुक्ति' आ मुक्तिक शेफालीक चरित्र-कथा पढ़ि, मिथिलाक नारी क्रोध सँ भरि उठलि, मिथिलाक पुरूष घृणा सँ भहरि उठलाह.
मुदा, दरभंगाक टावर लग ठाढ़ि एहि शरणार्थिनी केँ किओ भद्र महिला, किओ सुपुरूष शरण किएक नहि दैत छथिन ?
यैह थिक हमर प्रश्न! यैह थिक हमर सत्य! यैह थिक हमर दर्शन!
एहि पंजाबिन युवती केँ एकटा घर चाही, एकटा परिवार चाही, एकटा पति देवता चाही. एकरेटा नहि, देशक सभ युवती केँ एतबा चाही. से जाबत नहि भेटतै ताबत असंख्य शेफाली, असंख्य फुलपरासवाली, असंख्य दयामन्ती एहिना चाह माँगैत आ देह बेचैत रहतीह !
पुछलियैक- अहाँ हमरा सँ बिआह करब ?
'अहाँ.....?'
चाहक कप खाली करैत ओ हँसलि! बताहि जकाँ हँसय लागलि. हँसिते बाजलि- बाबू, सब पहले ऐसे हीं कहता है. अपना घर में ले जाता है. चार दिन मौज करता है. फिर निकाल देता है. हम जानता है आप भी ले जाएगा तो ऐसा हीं करेगा.
बुझ' मे आबि गेल.एहि युगक परम सत्य सँ एहि स्त्री केँ पूर्ण साक्षात्कार छैक.
विश्वाश बाबूक होटल सँ उतरि केँ सड़क पर अयलहुँ. पाछू-पाछू ओहो उतरलि. हमरा संगे चलैत बाजलि- बाबू इसमे आपका कोई कसूर नहीं है. आप पैसा देता है. मुफ्त में पैसा क्यों देगा ? हमारा पास देने को है हीं क्या ? देह है, सो देता है ! ये बिजनेस है बाबू, इसमें बुरा बात क्या है'.
बिजनेस ! व्यापार ! व्यवसाय.....!
ई युवती शरीरक व्यवसाय करैत अछि. एहि सँ दोख की , पाप की, अधलाह की ? पुछलियै- 'अहाँ कतेक लै छियै' ?
'सुबह से कुछ नहीं खाया है. कुछ खिला दीजिए बाबू, फिर जो कहिए, करूँगी' - कहैत कहैत ओ हमर बाँहि ध' लेलक.
एहि सँ सस्त आर की ?
फेर होटल दिस घूरि अयलहुँ. विश्वाश बाबू केँ कहलियनि- 'ई जे खाथि, खुआ दिऔन. पैसा हमरा नामे लिखि लिअ'. हमरा दिस बिना तकनहि ओ होटल मे पैसि गेलि.
हम ओकरा दिस बिना तकनहि होटल सँ बहरा गेलहुँ.
जेना मैथिली में हरिमोहन झा दोसर नहि भेला तहिना राजकमल चौधरी सेहो दोसर नहि हेता । दूनू गोटा अलग अलग विधा में लिखला परञ्च जे कॉमन अछि जे से कि दूनू गोटा के मनुख्खक मन के भाव पर अद्भुत पकड़ छलैन्हि आ ओकरा कलम के माध्यम सँ प्रकट करय में उत्कृष्ट छलाह ।
जवाब देंहटाएंLacharipan ko likh pana..sabke bas Ki batt nhii..jo likh gya mahan lekhak Ho gya..
जवाब देंहटाएं...ओह
जवाब देंहटाएंबहुत मार्मिक
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