कविता ::
कुमार राहुल
कुमार राहुल सुपरिचित कवि-पत्रकार छथि। एकटा पैघ अंतराल पर ‘ई–मिथिला’ पर हुनक कविता प्रकाशित भ’ रहल अछि। एतय प्रस्तुत हुनक दीर्घ-कविता ‘यात्रा’ पाँच खंडमे अछि। जेना कि शीर्षकसँ स्पष्ट अछि— कविताक केन्द्रमे जीवन-यात्रा अछि, जे शारीरिक आ मानसिक दुनू ठाम संग-संग कयल जा रहल अछि। एहिमे जतय व्यक्तिगत स्वप्न आ आकांक्षा अछि, ओतहि दार्शनिक भाव सेहो अछि मुदा, एहि सभक बीच सामाजिक दायित्व एवं सरोकार नहि बिसरायल अछि— कुमार राहुलक कवि तकर बेगरता आ महत्व नीकसँ बुझैत अछि आ एहि द्वंद्वमे नहि ओझराइत अछि। कवितामे बेर-बेर आयल "हमरा जेबाक ऐ एक दिन" जीवनक नश्वरता आ ओहि नश्वरतामे जीवनक उद्देश्य हेरैत अछि एवं एहि क्रममे अपन लक्ष्य आ मानवीय मूल्यकेँ मिसियोभरि नहि अबडेरैत अछि। एहि यात्रामे विचार आ व्यवस्था परिवर्तनक विभिन्न परिवर्तनकामी-बिंदु सभक अभिव्यक्ति भेल अछि एवं नश्वरताक भाव रहलाक बादहुँ कवि जीवनसँ अगाध प्रेम रखैत व्यवस्था परिवर्तनक घोषणा करैत अछि।
यात्रा (१)
एकटा नमहर यात्रा पर छी
कहियो काल अनचोके
मोन होइए जे
चल जाइ दूर— बहुत दूर
जतय हरीतिमा रहै पसरल
दूबि पर पड़ल ओस केँ
माथ सँ लगा सकी
सीता अशोक आ भकरार छितवनक छाहरि मे सुस्ता सकी
जेबाक तँ अछिये एक दिन
तँ चलिए किएक ने जाइ ऐ दशमीक प्रात
मुदा
मोन टोकि दैए
जायब कखन-केना-कोना
हम तँ एकटा नमहर यात्रा पर छी।
यात्रा (२)
के प्रिय, की प्रिय...
मायक दवाइ
बच्चाक कॉपी-कलम
पत्नीक सेहंता केँ पोसैत
दियाद-बाद, सर-समाज केँ
डेबबाक कला नै जनैत
अविश्वास आ अमर्यादित
वातावरण के ठेकनबैत
कनमा-कनमा खर्च होइत जाइत छी
बाकुट भरि बचि जाइत छी अपना लेल
कखनो-कखनो
तकैत छी अपन अकास
तँ धरतिये हेरायल बुझाइए
बहुत रास काजक बीच
हम बिसरि गेल करैत छी जे
हमरा एक दिन जेबाको ऐ
ई शरद पूर्णिमाक राति
अनैत ऐ अमृतक बरखा
जिनगीक अधरतिया मे
कर्तव्यक महफा चिड़इ बजैए— के प्रिय, की प्रिय...
कहियो एहिना
कनमा-कनमा खर्च होइत
हमर जिनगीक ताल- मुट्ठी
टगि जायत
गउआँ-समाज कहत—
नीक लोक छल कि नै
मुदा
गेल तँ अपना केँ खर्च करैत गेल
निशाभाग राति मे
महफा चिड़इ बजैत रहत— के प्रिय, की प्रिय...
रत्ती भरि संतोष रहत जे
हमर बड़काक हाथ मे ऐ कागज-कलम
आ नन्हकिरबोक हाथ मे लागल छै मोसि
अंगाक ऊपरका जेबी मे ध' रखने अछि सेहन्ताक पुड़िया
आ भितुरका धोकड़ी मे राखल छै समाज डेबबाक कला
तैयो
बहुत रास... बहुते रास काजक बीच
हम बिसरि गेल करैत छी जे
हमरा एक दिन जेबाको ऐ।
यात्रा (३)
फेर अबियह
नौ बजिया गाड़ी पकड़बा सँ पूर्व
घरक सभसँ अन्हार कोन मे
आसक एकटा ढिबरी जरैत रहैत छै
भाय कहैत छथि—
घर तक जयबाक रस्ता ठीक करा लेब
टाट पर लटकल झिंगुनी लत्तीक बीच
जखन चमकैत छै अझक्के एकटा चान
आ कहैत छै— चिंता जुनि करियह, फेर अबियह
हम तैखन बिसरि गेल करैत छी जे
जायब एकटा सकर्मक क्रिया छी
मुदा तैयो बहुत रास...बहुते रास
काज
आ इजोत
आ रस्ता
आ चान केँ तकैत
हमरा जेबाक ऐ, हमरा जेबाके ऐ एक दिन।
यात्रा (४)
उदास मौसिम मे सिहकैत बसात आनब
कमलाक करेज सँ
बोल्गा-यांग्त्जी नदीक तरहत्थी तक
घुमैत द्वंद्वक रस्ता
अहुरिया कटैत रहल
पलास वनक बसंत सँ
गर्जल वज्रनाद
मगह मे आबि ओझराइत रहल
ने चाह बगानक हरीतिमा बचलै
आ ने धानक कटोरी मे समान रूपें बचलै दू कौर अन्न
एहि यात्राक सारथी
सीसा पिया मारल गेलाह
जे यात्री बचला
ओ अरण्यक खोह मे मारल गेलाह
लगैत रहल आरोप पर आरोप
कचिया हाँसू तरबन्नी मे नुका देल गेल
कोसीक पानि ललछौंह होइ छै
से बूझल छै सभ केँ
तैं ओकरा बान्हल गेल धर्मक भीत सँ
कोनो बेर बबाजीक बाना
तँ कोनो बेर पताकाक हुरहुर्री
अबैत रहल अपन देस मे
खकस्याह ट्रेन पर सवार भ'
दिल्ली पहुँचल भोतियायल यात्रा
थीत ओहिना छैक, भीतक चित्र बदलि गेलै
यात्राक पहिल कोमल स्पर्श
एखन बिरहा आ बाउल संगीत बनल ऐ
पलास वन आ धानक खेत एखन उदास ऐ।
ऐ उदास मौसिम मे सिहकैत बसात
अनबाक लेल
हमरा जेबाक ऐ, हमरा जेबाके ऐ एक दिन।
यात्रा (५)
ताकब एकटा सलाइक काठी
हमरा जेबाक ऐ एक दिन
नेनाक दंतुरित मुस्की घुरेबाक लेल
चंदनवर्णी धूरा पर
उब-डुब होयबा लेल
सभ बेर मरछाउर नै छीटल जा सकैछ
नीनक अतत्त: तँ छैके कि नै?
खेत परती केना रखबै
बरखाक आलोड़ित बुन्नी
बरसबे करतै
तैं
हमरा जेबाक ऐ एक दिन
घरक चिनवार केँ
चिक्कनि माटि सँ छछारबाक लेल
नेहक एकटा बाती
जे बाँचल ऐ अकंपित
ऐ कारीस्याह समय मे
ओकरा उकसेबाक लेल
हमरा जेबाके ऐ एक दिन, थीत बदलबाक लेल
हे मोन!
हम की ताकि रहल छी
ऐ भयाओन राति मे
जतय व्यवस्थाक अट्ठहास छै
ऐ निर्लज्ज हंसी आ झूठक महासमुद्र मे
ठेलमासु तकबा लेल
हथोड़िया देबा सँ नीक जे
निकसि जाय
हे मोन!
हम जायब एक दिन
आ ताकब
एकटा सलाइक काठी।
•••
कुमार राहुलसँ परिचय, संपर्क आ ‘ई–मिथिला’ पर हुनक पूर्व-प्रकाशित कविता सभक लेल एहिठाम देखू: कतेक नम्हर छै दुखक ई अलाप

नीक कविता
जवाब देंहटाएं- मिथिलेश कुमार झा
जीवन यात्रामे एकटा कवि कतेक रूपमे एकरा देखबैत अछि आ की सब अनुभव करैत अछि से बड नीक जेकाँ अपन कविताक पांतिमे परिलक्षित होइत अछि।
जवाब देंहटाएं"कनमा-कनमा खर्च होइत जाइत छी
बाकुट भरि बचि जाइत छी अपना लेल।"
जिनगीक अधरतियामे कर्तव्यक महफा चिड़ै बजैए
ई दुनू लाइन हमरा बड नीक लागल। – निशा ठाकुर
कवितामे जीवनक दर्शन,आत्म द्वंद ,चिंता बेगरता देखबैत यात्राक अनेक रूपें परिभाषित करैत उत्कृष्ट सृजन भेल अछि. बधाई कवि — भावना झा
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