|| रिंकी झा केर किछु कविता ||
१). पाषाण
कखनो चिड़ैँ जकाँ चहकैत छी
कखनो फूल बनि हँसैत छी
साँच कही तँ प्रिये
कखनो बसात जकाँ उड़ैत छी
खन हरसिंगार बनि क' धरा पर खसैत छी।
एखन अहाँक सोझाँ छी
मुदा नहि अछि मिसियो भरोस
कि कखन बनि जायब पाषाण
आ युगक अंत मे कोनो पुरातत्वविदक खोजक वस्तु!
मुदा हमर अवशेष ओ नहि ताकि पाओत
किएक तँ हम पसरि गेल रहब
सुगन्ध बनि अप्पन माटि मे।
किछु प्रश्नक उत्तर
पाथर पर नहि,
हम बालु पर लीखि क' जायब
जेना,
की छल हमर समय?
केहन छल हमर सभ्यता आ संस्कृति?
कोना बीतल,
हमर सामाजिक, आर्थिक आ राजनीतिक जिनगी ?
हम कतेक प्रेम करैत छलहुँ अहाँ सँ?
मुदा कोनो कार्बन-पद्धति
नहि क' सकत निर्धारण
जे हमरा किएक बन' पड़ल पाषाण
नहि बता सकताह कोनो पुरातत्वविद
हम किएक भेलहुँ पाषाण।
२). यात्रा-संस्मरण
कोना लिखबै
हम अपन यात्रा-संस्मरण
अहाँ तँ हमर पएर मे मर्यादाक डोरी बान्हि
लक्ष्मण रेखा पारि देलियै घरक देहरि पर।
मुदा हम अवश्य लिखबै
अपन यात्रा संस्मरण
हम लिखबै—
अकास सँ अँगना मे ताकैत सुरुज केँ,
तुलसी पर खसैत रौद केँ,
खिड़की सँ निहारैत चान केँ,
साओन -भादवक बुन्न केँ।
हम लिखबै—
चूल्हि पर भानस करैत माए केँ,
पएर मे थाल लागल हरवाह केँ,
बथुआ साग तोड़ैत ननकिरबी केँ,
बोझा उघैत नेनाक संघर्ष केँ।
किछु एहिना लिखैत रहबै,
हम अपन यात्रा संस्मरण।
३). चश्मा
हमर आँखि पर लागल
चश्माक पहरा देखि
ई नहि बुझबै
जे हमर आँखि खराप भ' गेल अछि।
ई तँ आँखि मे बसल
किछु स्वप्न छैक,
जकरा हम बचाबय चाहैत छी
एहि संसारक आँखि सँ।
चश्माक शीशा केँ ओहि पार
सगरो संसारक लोकक आँखि
आ एहि पार हमर आँखि मे बसल
किछु स्वप्न अछि।
जे कखनो एसगर मे,
हमर ठोरक हँसी बनैत अछि
तँ कखनो दुख मे आँखिक नोर।
जकरा देखि
हम दुनियाँ केँ भीड़ मे
हेराय जाइत छी
स्वयं अपने केँ भ' जाइत छी।
जकरा टूटै सँ
हम टूटि जाइत छी
आ हेराय सँ डरि जाइत छी।
ओ स्वप्न,
जे हमर आँखिक सुन्नरता बढ़बैत अछि
ओकरा हम
अपन सिरमा तर राखि
फूजल आँखि सँ सूति रहैत छी।
ओहि सबटा स्वप्न केँ
हम जिनगी भरि
अपन आँखि मे
चोरा केँ
राखि लेमय चाहैत छी।
तेँ हमर आँखि पर लागल
चश्मा केँ पहरा देखि
ई नहि बुझबै,
जे हमर आँखि खराप भ' गेल अछि।
४). पुरापाषाणकाल मे मनुक्ख
जखन मनुक्ख
अपन सभ्यता आ संस्कृति सँ नहि रहए अवगत
प्रेम छल तखनहुँ।
जखन नैतिकता आ मर्यादाक जनम नहि भेल रहए
सभ सँ पहिने, मनुक्ख देखलक पाथर
प्रयास कएलक चिन्हबाक ओकरा
आ पाथर सँ पाथर केँ रगड़ि
क' लेलकै आगिक खोज।
देह झाँपबा सँ पहिने
आदम सीखि लेलकै प्रेम करब।
जखन नहि बूझैत छल ओ
खएबा-पीबाक ठीक-ठाक तरीका
आ पहिरब वस्त्र
तखनहुँ ओकर ह्रदय मे जरैत छल प्रेमक दीप।
प्रेम अनैतिक नहि अछि-
ई अछि देह सँ फराक
कोनो नीतिशास्त्र सँ अलग
जकरा पुरापाषाणकाल मे साबित क' देने छलै
आदम आ हब्बा।
रिंकी झा |
५). नदी घाटी सभ्यता
जतय बाट खतम होमय लगैत अछि
ओतय भेटैछ हमरा एकटा आन्हर मोड़
जकर आगू खाली नोर भरल छै
ओ नदी छियै वा समुद्र
हम नहि जनैत छी।
मुदा इतिहासकार एकरा दुनियाक सब सँ प्राचीन सड़क मानैत छथि
जखन- जखन हम एतय अबैत छी
लगैत अछि जेना हमर प्रतीक्षा मे कियो ठाढ़ अछि
हमर अपन सुख
अपन दुख
अपन भय
अपन दर्द
जाहि मे हम भीजय चाहैत छी
किएक तँ ई सबटा हमर अपनहि छी।
नदीक बहैत इतिहास मे
हमरा भेटैछ
जिनगीक आदि नदी कथा
इतिहासकार कहैत छथि-
एतहि भेल रहै हमर सभ्यता केँ आरम्भ।
एतहि लड़ल रहथि हमर पूर्वज
गुफा संग अपन अस्तित्वक युद्ध।
एतहि भेटल रहै मनुक्ख केँ
एकटा नौब जीवन
आ ओकरा जीबाक तरीका।
एतहि भेल रहै आदम आ हब्बाक
प्रेमक आरम्भ।
एतहि पाथर सँ पाथर केँ रगड़ि ओ क' देने रहै
आगिक खोज
जरल रहै ओकरा ह्रदय मे प्रेम।
माटि सँ पानि मिला
एतहि सीखने रहै ओ खेती केनाय
एतहि केने रहै ओ
सृष्टिक रचना।
नदी केँ बीचो-बीच बाट बना
एतहि केने रहै ओ जल मार्गक खोज
पहिया बनय सँ पहिने
मनुक्ख नाह बना जाय लगलै
एक जगह सँ दोसर जगह।
सभ्यता केँ अस्तित्व नदीये सँ छै
नहि तँ किएक जयथिन कृष्ण मथुरा सँ द्वारिका
किएक लयथिन पाण्डव अपन हिस्सा मे खाण्डव बोन
एखनहुँ दुनियाक मानचित्र पर
नील नदी बहैत छै
सिंधू नदी बहैत छै
मिश्र आ हड़प्पा संग कतेको नदी बहैत छै।
सभ्यता जनम लैत छै,
बढ़ैत छै,
फेर होमय लगैत छै विलुप्त।
हम जखन जाइत छी ओम्हर
लगैत अछि जेना हमर प्रतीक्षा मे
ठाढ़ अछि कियो।
हम चूमि लैत छी अपन ठोर सँ नदी केँ
बून्न-बून्न पानि केँ
आ झूकबैत छी ओकरा लग अपन माथ
किएक तँ एतहि भेल अछि
हमर सभ्यता केँ आरम्भ।
६). अहिल्या
कोन गलती छलनि अहिल्याक,
किएक बनलथि ओ पाथर
गौतम हुनका पोसि -पालि समर्थ बनेलखिन
ओ देखलखिन सदिखन गौतम मे एकटा पिता
आ ओ पितातुल्य गौतम,
बना लेलखिन हुनका अपन अंकशायिनी
मुदा चुप रहलनि अहिल्या
किएक तँ अपन पति चुनबाक अधिकार
नहि रहनि हुनका।
छल केलखिन हुनका संग इंद्र
बदलि क' अप्पन रुप
हुनको भ' गेलनि
इंद्र संग प्रेम
मुदा ओ चुप रहलनि
किएक तँ प्रेम करबाक अधिकार नहि रहनि हुनका।
त्यागि देलखिन हुनका गौतम
कहि क' चरित्रहीन
ओ बनि गेलखिन मनुक्ख सँ पाथर
मुदा चुप रहलनि
किएक तँ प्रश्न पूछबाक अधिकार
नहि रहनि हुनका।
ओ पाथरि बनि कनैत रहलनि
नहि एलखिन्ह इंद्रदेव
नहि गौतम
राम हुनका जिनगी देलनि
मुदा ओहो पएरे सँ स्पर्श क'।
सैह भगवानक राज मे स्त्री केँ एहने स्थिति रहै
तँ कोना नहि बनितै स्त्री पाथर।
७). केश कोड
जखन ननकिरबी सभक केश केँ
तेल सँ भीजा
ओकरा दू जुट्टी बान्हि देल जाइत छै
फीता सँ,
तखन कोना स्वतंत्र रहतै ओ सभ
ई केहन आडंबर छै संस्कारक
ओकर बेसी हँसनाय, बजनाय
सेहो खराप लगैत छै लोक केँ
तखन कोना स्वतंत्र रहतै बेटी सभ
हम देखने रहियै ओहि इस्कुल मे
जखन कहियो
फूजल केश संग आबय कोनो ननकिरबी
तँ ओकर ठोर पर एकटा निश्छल
हँसी रहै
मुदा ओकर आँखि मे देखने रहियै हम डर
कखनो कोनो मास्टर तँ नहि देखि गेलथि
केश कोड लागू रहै इस्कुल मे
मुदा नहि फज्जैत करियै हम ओहि बच्चा सभ कें।
हम जनैत रहियै
ई इस्कुलक अनुशासन केँ विरुद्ध छै
मुदा नहि किछु कहि पबियै
किएक तँ हम चाहैत छी
केशक संग स्त्री कें स्वतंत्रता नहि मारल जाय
सभ स्त्री स्वतंत्र रहै
सभ ल' सकै प्रकृति संग खुलि क' साँस
आ एकरा बदला मे
बढा देल जाय
बच्चा सभहक पाठ्यपुस्तक मे नैतिक शिक्षा कें ज्ञान
सीखाओल जाय ओकरा
स्त्री आ पुरुख एकर दोसर कें सम्मान कोना करैत अछि ?
माय, बाप, भाय, बहिन आ पत्नी केँ परिभाखा की होइत छै ?
पशु आ मनुक्खक बीच कोन फर्क होइत छै?
कोनो ननकिरबी केँ केश बान्हला सँ
एहि समस्या सभहक
समाधान नहि भ' पाओत
एहि लेल सभकें सीखाबय पड़त
नैतिक शिक्षाक ज्ञान।
❤सुंदर
जवाब देंहटाएंबहुत शानदार अद्भुत।👍
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जवाब देंहटाएं👏👏👏
जवाब देंहटाएंनारी-शक्ति क उत्थान एवं प्रेरणा स्वरूप लिखल रिंकी झा क कविता में वेदना एवं संवेदना के समाविष्ट करवाक सराहनीय प्रयास कयल गेल अछि। उज्ज्वल भविष्य क शुभकामना।
जवाब देंहटाएंनारी-शक्ति क उत्थान एवं प्रेरणास्वरूप लिखल रिंकी झा क कविता वेदना एवं संवेदना सँ पूर्ण अछि। उज्ज्वल भविष्य क शुभकामना।
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