सागर | क्लिक : शशांक मुकुट शेखर |
बहुत हालेक बात थिक जे सागर अपन बेधक आ मार्मिक टिप्पणी सब सँ उत्फाल मचबैत सोशल मीडिया पर प्रकट भेल छलाह। मुख्य वस्तु जे हमर-अहांक ध्यान आकृष्ट करै छल से छलनि हुनकर एकाग्र निरीक्षण-दृष्टि। हमरा सब दिन ई लगैत रहल जे हो न हो, ई तरुण जँ कविता लिखथि तँ जुलुम लिखता। बहुत प्रीतिकर अछि ई देखब जे सागर कविता लिखि रहला अछि।
चाबस सागर !
देहक वस्त्र जकाँ अहाँ सँ उतरैत छी हम
आ कि उतारल जाइत अछि कोनो आन बहन्ने,
जाहि ठाम इजोतक अबरजातक बीच
अन्हार अबैत अछि घोघ लटकओने
जिनगीक नायिका बनि,
जखन निसाभाग रातिक माझ
विपत्तिक उत्सवक हकार दैत
सड़क लटपटाएत भगैत अछि
विरहक ताल आसमान धरि पहुँचेने
पसिखानाक झमार सँ लौटैत बटोहीक दिस
केस केँ फोलि माटि देखबैत
हमर प्रेयसी अबैत छथि
भखरैत सर्दीआएल राति मे
स्नेहे सँ छोड़बाक ओरिआन करैत,
हमर कविताक अर्धांगिनीक
लाल लहंगा केँ समर्पित
रत्ती बसातक सिहकी सँ
डिबियाक टेमी परहक आगि सन डोलैत, समूचा देह,
मोलाएम गर्म हाथक कोनो कोन मे
मेहदीक रचाओल हमर नाम
होबए लगैत अछि रक्तक लाली सँ
हल्दिआएन पीयर,
हमर कविता रंगबाक चेष्टा करैत अछि
लालो सँ सहस्त्रों जोजन आगाँ, एसगर ठाढ़
हमरा अहाँक पीड़ाक शब्दक रंग सँ
दुखक भमरा फूटैत अछि पन्ना सँ कीबोर्ड धरि,
प्रेमक पीड़ा केँ असोथकित बाट पर
हमर कविता गढ़ैत अछि अहाँ केँ स्वरूप
अपना केँ पूर्ण करबा लेल
एकहेकटा प्रेम कएनिहार
ककरहुँ वस्त्र मात्र छथि
उतारल जएताह कोनो दिन (!)
बाँचल गिनतीक किछु श्वांसक संग
चमकैत अछि अंदेसा
वस्त्र जकाँ बदलल जएबाक,
ओहिएठाम पूर्ण होइत अछि कविता
जेना 'हमर-अहाँक'।
कोनो दूधिया पएर नचैत अछि आँखिक बीच,
धएने साँझक नाथ, छेकने रातिक दुआरि
अंतिम धरि बचओने रहैत अछि भरोस
दू जोड़ी आँखिक घेंटाजोड़ी होएबाक
औलैत अछि हमर इच्छाक काँच बिया
अपन पपनीक ताग पर,
काजरक अओढ़ सँ झीकब चाहैत
बेफिजूलक बेगरता, अपना डीम्हा मे
टुकटूकी लधने, ठिकिअबैत
सियाह ठोड़ पर छताएल जुआन जिगेसा
आँखि सँ कंट्रोल होइत पृथ्वीक भूगोल
आ हुलकी दैत अन्हारक विवशता, हमरा अहाँक बीच
नबगछुलीक कोनो फुनगी पर जेना
नब पल्लबक झुरमुट मे देखार होइत
कतेको बाँझ बरखक बाद, मनोरथक एकगोट आम
चिन्हने होइ, बरखो एसगर छोड़ि गएनिहारक तरबा
श्राद्घ-कर्मक भिनसर हँसी-ठहक्का करैत, दलान
कोनो टूटल खिड़कीक फाँक सँ
यात्री केँ भेटैत अछि आफियतक, पीपरक छाँह
बुन्न भरि तेल पर डोलैत, डीबियाक नान्हि टा इजोत
जकर बन्न होइते, फुजैत बेआकुल बिछाओनक भक
संसारक मैप सँ मनुखक छाप धोखरि
बिलिन होएत असंख्य परमानुक आबाज मे,
लासक सड़क बहारल जाएत
ओकरहि रक्तक धार सँ, ओही ठाम
कोनो रँगाएल पएर सँ अबैत हकार आ
कजराएल निमुन आँखिक सिहन्ता
मेटा सकत ककरो गोदऔस कच्छमच्छी
उड़ा सकत किछुए काल, थोड़बे अफबाह
ककरो आगम केँ।
जाहि तरहेँ भुतिआए रहलहुँ अछि हम
नहि कहल जा सकैछ, छी मनुख
आकि एहिठामक खुटेसल कोनो चेतन जीव
उपजबैत गेलहुँ किछु स्वप्न
मेटबैत गेलहुँ दुखक सभ दरारि
निन्नक फाड़ सँ
अहाँक नाम संग
लिखल गेलैक हमरहुँ नाम
दलानक ताख पर
नुकओने रहलहुँ लिखल किछु पत्र
बिनु नाम, एड्रेसक
जकरा देबार पढ़ि कए लेलकै अछि प्रेम
जे अहाँ कहिओ रुसि, फुला सकितहुँ गाल
आ चौठचानक आँगन बुझि
हम बना सकितहुँ रंग-बिरंगक अड़िपन
अनदिनों, दिन-राति
भाँगल गेलैक आत्मा
पटकल गेलैक चार परहक कुम्हर जेना
आ चिन्हार हाँसू पर फाँक कएल गेलैक हमर प्रेम
अनंत धरिक लेल बनाओल
एहि प्रेमक अबडेरल निवासक संग
फुलाएल जा रहल अहाँक लेल बेतरेक,
फुलाएल अभिलाष केँ जोगाएब
चढ़ेबा लेल अहाँक स्नेहक मिझाएल आँच पर
एखनहुँ!
अहाँक रुइयाक मेहियाएल ठोड़ सँ
सिनुरिया इजोतक मिसिया भरि लाली,
जाहि दिन अहाँक गाल गुलाबी सिकुड़ि
बेजन्तिक सुखाएल पात बनबा पर होएत बीर्त,
केस उड़ि बन्न कए देत भेट करब
आँखिक कारी काजर सँ
उतरि जाएत अएना मोनक देबाल सँ,
ओहिठाम हमर कविता कए सकत श्रृंगार
निसंदेह, एखन सँ नीक, अहाँ सँ नीक
टांगि देत अहाँक एकहेक डेग पर आसमानी अएना
हमर कविता देखा सकत अहाँक ओ रुप
जे नहि देखाओल अछि कोनो अएना,
जे नहि देखा सकल अहाँक कतेको प्रेम कएनिहार मे
किओ एक, एखन धरि
जखन कि अहाँक रुप पर लिखल गेल
कतेको कविता, कतेको कविक कलमे, अहींक लेल
कीट्स, पाब्लो आ कि करावास बैसल
हिकमतक पन्ना पर सेहो
अहाँक ठोड़क भखड़ैत लौलीन रंग,
कए देत काजरक कारी सँ बेसी कारी अहाँक केश
सोलह बरखक
अहाँक जुवानिक, एकगोट प्रेमिक पसीनक फोटो सँ
सुन्नर होएब अहाँ,
हमर कोनो अपूर्ण कविताक पुरान कागत पर
सन 'दु हजार अस्सी' मे।
देखबा लेल अपना माथा, एकगोट लौलीन पाग
ठाढ़ होएबा लेल मिथिलाक बैनर लगाओल
मिथिला सँ दिल्ली धरिक कोनो मंच,
बजबा लेल ओ बात, जे करैत काल
मोन पड़ैत अछि प्रवास
आ कि अपन सामर्थ्यक ओकायत,
जाहि सँ बेस बाजि लेलहुँ अछि
किछु आओर थोपड़ी सुनबाक बास्ते।
बान्हि रखने अछि मंचहि केँ माइक्रोफोन।
नहि लेल जाइ छीन,
पाग केँ नहि फेक देल जाइ जुमा मंचहि सँ
हम बजैत रहब,
पूजैत रहब इतिहासक गौरब केँ
जा धरि मिथिला टेक नहि दैछ मुड़ी,
थोपड़ी सुनैत रहब
जा धरि संस्कारक देह
नहि सनिहा जाइ आधुनिकताक चूल्हा मे।
उघैत रहलहुँ एहि मंच सँ ओहि मंच,
टाँगेट रहलहुँ विदेसक देबाल पर पेंटिग
अखियास नहि रहलए
कहिया टाँगि अएलहुँ विरोधक स्वर,
मीठ सँ आओर मीठ होएबाक बाट मे
उजड़ि गेल शरीर आ
आधुनिकताक लपेट मे
ठाम परहक संस्कार।
आ मुड़ी टुटलाक बादो नहि धएल जमीन।
किछु माथक पाग,
किछु मंचक, मंचहि भरिक चालि देखि लगैत अछि
ओजनगर तँ 'नहिये टा भ' सकैछ' ओहिठामक पाग!
चाबस सागर
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्नर लिखलंव। लिखैत रहू। ❤️
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