कथा ::
लाथ
अशोक ■
मंडल अयला तं कहलियनि, एकटा रंगीन कुरता किनबाक अछि. पैजामा सेहो. सोचैत रही जे अहां आएब तं बजार चलब'. हुनकर ठोर पर आने दिन जकां बिहुंसी अयलनि. फेर जोर सं हमरा संग हाथ मिलौलनि. ई हुनकर हिस्सक छनि. बजला मुदा प्रश्नवाचक जकां, पक्का ?
-'हँ एकदम्म पक्का ! लाॅक क' दिऔ'. ओ जोर सं हंसला. हाथ पकड़नहि पूछलनि, 'कहिया चलब ?'
-'आइ, एखनहि.' हम जवाव देलियनि. हमर चेहरा पर परिवर्तन देखार छल. मंडल बूझि गेला.
-'खुशी भेल भाइ. बहुत बहुत खुशी. अहां अजुका काज काल्हि पर नहि टारलहुं.' हम एहन खुशी मंडलक चेहरा पर देख' चाहैत रही. देखलहुं हुनकर चेहरा कहल बातक समर्थन मे पसरल रहय. ओ ठीके प्रसन्न भेल रहथि. मंडल हमर नीक मित्र छथि. मनोविज्ञानक प्रोफेसर छथि. दुनू गोटे एक्के काॅलेज मे छी. हम समाजशास्त्र मे ओ मनोविज्ञान मे. बहुत गरीब पृष्ठभूमि सं एत' धरि पहुंचल छथि. जीवन जीबाक अपन एक ढंग छनि हुनकर. कहलनि 'चलू, चलल जाय'. हम हुनका संग बजार जा क' एकटा कुरता कीनि अनलहुं. बेस लम्बा. करिया रंगक कुरता. जाहि पर पीयर आ हरियर रंगक गोसबारा धारी रहय. मंडल बजारे सं अपन डेरा चल गेल रहथि.
हम आबि क' पैंट-शर्ट खोलि पहिने उजरा पैजामा पहिरलहुं. देखलहुं अपन देह मे पैजामा. एकटा अठारह बीस बरखक नवयुवक मोन पड़ल. ओहि नवयुवक सं हम नहि किछु तं तीस बरख अवश्य जेठ होएब. शोभा देखलनि तं चिचिअएली.
-'अरे वा, अहां पैजामा पहिरलियै ! ई की फुड़ि गेल अहां कें ? आइ धरि तं पैजामा अहां कहियो नहि पहिरलहुं'. कहलियनि 'एखन की देखलियैए. जखन कुरता देखबै तखन ने'. हम हबड़-हबड़ पन्नी सं कुरता निकाललहुं. हाथ सं पकड़ि क' ओकरा शोभाक सोझां लटकेलहुं. शोभाक मुंह सं कोनो शब्द नहि निकललनि. हम कखनो कुरता आ कखनो शोभा कें देखि रहल छलहुं. ओहो सैह क' रहल छली. हुनका चकबदोर लागल छलनि. देखलहुं हुनकर आँखि मे रोशनि चमकलनि. बजली 'हे भगवान ई की केलियै यौ ? एहन कुरता ? हम साफ देखलहुं शोभाक नाक घोकचि गेल छलनि.
बियाहक पच्चीस बरख बीति गेल अछि. पच्चीस बरख कोनो कम समय नहि होइ छै. चिन्ह' तं लगले छियनि हुनका. एहि पच्चीस बरख मे बहुत किछु सीखने छथि ओ. चेहरा आ संवादक तालमेल तं ठीके सं सिखने छथि.
-'हमर देह पर नहि नीक लागत की ? हम हुनका उकसेबाक चेष्टा केलहुं. ओ जेना कने सम्हरली. बजली, 'नीक किए नहि लागत. असल मे एहन कपड़ा अहां नहि पहिरैत छी. ककरो देखि अजगुत लगतै'.
-अहूं कें देखि क' लागल ?' हम फेर हुनका टोक' चाहलहुं.
- 'तं हमरा नहि लागत ? सभ दिन अहां कें सादा-सादी देखलहुं. उज्जर रंगक कपड़ा. खास क' कए कुरता-धोती तं अबश्ये उज्जर. बेसी फूल-फाल रंगीला तं कहियो ने देखलहुं अहां कें. जहिया सं वियाह भेल एहिना देखैत छी.
हम सोचलहुं बात तं ठीक कहैत छथि. बियाह सं पहिनहि प्रोफेसर बनि गेलहुं. किताबक दुनिया मे चल गेलहुं. फेर बाप बनि गेलहुं. बीच मे शुभ्र-शाभ्र सन अपन छवि नीक लाग' लागल. छवि बनेबाक पाछू कखन उज्जर रंग देह पर चढ़ैत चलि गेल पते ने चलल. अपना कें फराक बनेबाक चेष्टा मे कत' सं कत' चल गेलहुं.
कुरता पहिरबाक मोन हुअ' लागल. एक-एकटा बटन मोलायम हाथें खोललहुं. नवका कपड़ाक बटन सभ खोलै मे कठिन होइ छै. धैर्यक परीक्षा लैत छै. अगुतेला सं झंझटि. जोर लगेला सं टूटबाक डर. आस्ते-आस्ते चारू बटन खोलि देलियै. पहिर' लगलहुं तं नाक मे नवका कपड़ाक सुगन्धि भरि गेल. आह की सुगन्ध होइ छै नव वस्तुक. एहि सुगन्धि लेल लोकक मोन कत्ते व्याकुल रहैत छै. तखने मोन पड़ला एकटा मित्र. डाक्टर छथि. हुनकर डेरा पर एकबेर ठहरल रही. भोर मे सुनलहुं अपन कनियां पर ओ तमसाइत रहथि. किओ हुनकर नबका अखबारक तह बिगाड़ि देने रहनि. पढ़ि लेने रहनि अखबार. हुनकर क्रोध पर हमरा अजीब लागल रहय तहिया. अखबारक तह बिगड़ि गेलै तं की भेलै. अखबार तं ओहिना छै. पढ़ि लेथु. बूझल छल ओ पैखाना मे अखबार पढ़ैत छथि. पूछलयनि तं कहलनि 'अरे, अखबारक सबटा सुगन्धि उड़ा देलक. तह टूटि गेलै तं नबका अखबारक अपूर्व सुगन्धि उड़ि गेलै ने. आब हमरा नदी कोना होयत ? हम आश्चर्य मे पड़ि गेल रही. ई अखबारक सुगन्धि सं नदीक कोन सम्बन्ध छैक. डाक्टर अपने कहलनि, 'नहि बुझलियै. अखबारक तह खोलै छियै तं ओहि सं एकटा अपूर्व सुगन्धि निकलै छै. तेलाइन, तीताइन-किछु अजीब सन. ओहि सुगन्धि सं हमरा 'स्टीमुलेशन' होइए. जुलाबक काज करैए ओ. आइ हमरा नदी फिरै मे दिक्कत भ' गेल.
-'से किए, कोनो नवका अखबार मंगा लिअ'. हमरा हंसी लागि रहल छल. मुदा डाक्टर गंभीर छलाह.
कुरताक सुगन्धि हमरा मे उल्लास भरलक. स्फूर्ति आयल देह मे. पहीरि क' अपना दिस तकलहुं. शोभा कें पूछबाक इच्छा भेल. मुदा शोभा तं ताबत कोठली सं निकलि गेल छली. भनसाघर मे रहथि. हम ओत्तहि सं चिकड़लहुं, कत' गेलहुं ? देखियौ ई कुरता केहन लगैए हमरा देह मे ? ओ लगले अयली. एक नजरि हमरा पर फेकलनि. बजली- नीक तं लगैए, मुदा कने कोनादन सेहो.
-'कोनादन की ?' हम पूछलयनि.
-'यैह, एहन कपड़ा अहां पहिरैत नहि ने रही. कनी दोसर तरहक.'
-'दोसर तरहक की ? बदलल लगैत छी ? दोसर लोक ?' हम हुनका पूरा खोल' चाहैत रही.
-'दोसर लोक तं नहि. मुदा कम बयसक जरूरे भ' गेल छी. बयस पाछू चल गेल अछि.'
-'कत्ते पाछू ?' हम उत्साहित छलहुं.
-'कत्ते पाछू ? करीब दस बरख तं अबश्ये.' ओ आब हंस' लागल रहथि. लागल स्थिति कें ओ आब थाहि लेने छथि. दस बरख पाछू चलि गेला पर हमरो खुशी भेल छल. एक झटका मे दस बरख पाछू चल गेलहुं. फेर सं जीवन जीयब. मुदा ई दस बरख छोट भेनाइ कोनादन कोना भ' गेल ? पूछलयनि, 'दस बरख छोट भेनाइ कोनादन लगै छै. से कोना ?' ओ एखनो मुस्कुरा रहल छली. कहलनि, 'अहां दस बरख पाछू चल जाएब त' हमरो जाय पड़त की ने ? से नीक लागत अहां कें ?' आब हँसबाक बारी हमर रहय. कहलियनि 'अहां कें पाछू जेबाक कोन काज अछि. अहां त' ओहिना दस बरख पाछू लगिते छी.' आब ओ आँखि गुड़ारि कें हमरा तकलनि. कोनो उत्तर नहि देलनि. चुल्हा पर लोहिया चढ़ल रहबाक गप्प कहि चलि गेली. हम अयना मे अपन देह देख' लगलहुं. देह पर कुरता कें देखलहुं. मोन भेल एही कुरता मे अपन सरहोजि सं भेंट क' आबी. ओ लगे मे रहैत छली.
डेरा सं नीचां उतरलहुं. विदा भेलहुं. बगलबला फ्लैट सं हरेरामजी देखलनि. हरेरामजी गायक छथि. रेडियो मे गबैत छथि. मंच पर सेहो कार्यक्रम करैत छथि. श्रोता के पसिन्न पड़ैत छथिन. देखिते चहकि उठला, 'अरे वाह! प्रोफेसर साहेब! ई अपन चोला कोना बदलि लेलहुं ? एहन लहकदार कुरता ? ताहि पर पैजामा ! साफे बदलि गेलहुं अछि'.
-'नीक नहि लगैए की ?' हम पूछलियनि.
-'आहि, नीक किए नहि लागत. एकदम निराला लगैत छी. आब खाली एकटा डेका के कमी रहि गेल अछि'. हम हँसैत कहलियनि, 'तखन तं अहां संग नीक संगति रहत. संगतिया भ' जाएब हम अहांक'.
ओ जोर सं हँसलाह. हँसैत रहलाह. हम आगू बढ़ि गेलहुं. सरहोजिक ओहिठाम पहुंचलहुं. ओ सन्ध्याकालीन पूजा मे छली. सरहोजि हमर खूब धार्मिक लोक छथि. घरे मे एकटा मन्दिर बनौने छथि. पूजा मे दुनू साँझ तीन घंटा लगैत छनि. एहन कोनो भगवान नहि भेटताह जे हुनकर मंदिर मे नहि रहथि. हम ड्राइंग रूम मे बैसि गेलहुं. संयोग सं ओ जल्दीए फराकति पाबि आबि गेली. अबिते कहलनि, 'अरे, ओझा ! आइ ई कोन रूप ध' लेलहुं अहां ?'
-'अहीं कें त' देखब' अयलहुं अछि. केहन लगैए ?'
-'आर कोनो कपड़ा नहि भेटल ? दरबज्जाक परदा पहीरि क' चल अयलहुं. केहन नीक लोक छलहुं. ई की पहीरि लेलहुं ?'
-से किए, नीक नहि लगैए की ?' हम पूछलयनि. हमरा आनंद भ' रहल छल. ओ बजली, 'नीकक कोन गप्प छै. नीक तं आरो लाग' लागब जँ पैजामाक बदला नूआ पहीरि लेब.' हमरा हुनकर जबाब मे हास्य आ व्यंग दुनू बुझा पड़ल. हँसी लागल. हँसैत कहलियनि, 'तखन तं आर नीक होएत ने. एकदम्मे अहां सन भ' जाएब. अहांक सखी बहिनपा.' भरिसक ओ घमि गेली. हँसी लगलनि. चाह-ताह पिऔलनि. जलखैक आग्रह केलनि. हम घूरि क' डेरा दिस विदा भेलहुं. सोचलहुं ई कुरता-पैजामा त' बड़-बड़ रंग देखौलक. कुरता आब आर नीक लाग' लागल.
रस्ता मे परशुरामजी सं भेंट भ' गेल. परशुरामजी भविष्यवक्ता छथि. लोकक कुण्डली बनबैत छथि. औंठी प्रिसक्राइब करैत छथिन. जबानिए मे मुदा वृद्ध सन लगैत छथि. कपड़ा मे कमेकाल साबुन लगबैत छथि. हमरा कने ग'र सं देखलनि. चश्मातर हुनकर आँखि स्थिर भ' गेल छलनि. कहलनि 'प्रोफेसर साहेब, ई कुरता-पैजामा अहाँ नहि पहिरू. अहां कें ई नीक नहि लगैए.' हमरा फेर हँसी लागल. मुदा हँसलहुं नहि. कहलियनि 'असल मे हमरा पर एखन साढ़े साती चलि रहल अछि. कारी रंग जरूरी अछि.' ओ प्रसन्न भेला. कहलनि 'तखन त' नीक कएल. अवश्य पहिरू. शनिक ई प्रिय रंग थिकनि. नीक रहत.' हम परशुरामजी कें नमस्कार करैत विदा भ' गेलहुं. ओ ठाढे रहला. हमरा दिस तकैत रहला.
डेरा पर अयलहुं त' शोभा कहलनि जे संतोषक चिट्ठी आयल अछि. संतोष, हमर बालक जे डाक्टरी पढैत छथि. चिट्ठी ल' कए पढलहुं. संतोष अपन पढाइ-लिखाइक मादे लिखने छला. लिखने छला जे एकटा सौंसे मुरदा के ओ चिड़ने छला. मनुक्खक सभटा अंग देखने रहथि. तखन इहो लिखने छला जे 'बदलैत लोक आ मिथिलाक जातीय संरचना' पर छपल हमर निबन्ध प्रोफेसर चट्टोपाध्याय के पसिन पड़ल छलनि. चिट्ठी पढि लागल रहय जे संतोष के हमर देह मे ई कुरता खराब नहि लगतनि.
राति मे मंडलक फोन आएल. पूछलनि 'भाइ रतुका पान खेलहुं ?'
'रतुका पान ?' हम बूझियो जे कने अकचकेलहुं.
-'अरे, आइ-काल्हि पान तं अहां सांझक बादे शुरूह करैत छी ने'. हम हंसलहुं. मण्डलो हँसलाह. ओ शुभरात्री कहलनि. हमहूं कहलियनि.
दुनू बेकती खा-पीबि कें बिछान पर गेलहुं. आर तं कियो डेरा मे छल नहि. बेटी सासुर मे आ बेटा कलकत्ता. हम रातियो मे कुरता पैजामा नहि उतारलहुँ. शोभा सेहो किछु नहि कहलनि. राति मे नीन्न मुदा नीक भेल. एहन नीन्न कहियो-कहियो होइत छैक. भोर मे उठलहुं तं अनुभव भेल जे हमर देह पर किछु अछि. देखलहुं शोभाक हाथ थिक. शोभा सूतल छली. हुनकर हाथ हमर कुरता पर छल. लागल जेना एहि हाथक प्रतीक्षा बहुत दिन सं रहय.
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अशोक समादृत कथाकार-आलोचक छथि। एखन धरि हिनक चारि टा कथा संग्रह त्रिकोण, ओहि रातिक भोर, मातबर आ डैडीगाम दृश्य मे छनि। अशोक अपन कथा-लेखनक लेल मैथिलीक साहित्यिक जगत मे ततेक लोकप्रिय छथि, जे लोक हिनक नाम धरि मे कथाकार जोड़ि देने छनि। कथाक अतिरिक्त कविता, आलोचना, साक्षात्कार, यात्रा-वृतांत विधा मे सेहो पुस्तक प्रकाशित-प्रशंसित। सम्प्रति 'सन्धान' आ 'घर-बाहर' पत्रिकाक संपादन कार्य लेल सेहो सुचर्चित।
लाथ
Reviewed by बालमुकुन्द
on
फ़रवरी 16, 2017
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