गाँधी


|| वैद्यनाथ मिश्र 'यात्री'क कविता गाँधी ||


जय-जय परमपिता हे गाँधी
जय-जय जयति महाबलिदानी
ओह, अहाँक वियोग-व्यथा मे
के नहि आइ कनइ अछि प्राणी
जा धरि रहता सूर्य-चंद्रमा
जा धरि ग्रहगण, जा धरि तारा
जा धरि बहती गंगा-गंडकि
बाग्मती कमला कोसिक धारा
जा धरि पृथिवी, सागर जा धरि
जीवित रहब अहाँ तहिआ धरि
काए-वचन सँ अथवा मन सँ
हिंसा कएल न कोनो जीवक
कोटिक कोटि मनुक्खक हित लए
जिनगी अपन बिताओल गरीबक
दुख ककरो नहि देल कनेको
अपने विपत उठाओल अनेको
जीवितहिं पसरल कीर्ति भुवन भरि
तेना बहाओल शांतिक सुरसुरि
जय-जय राष्ट्रपिता हे गाँधी
जय-जय जयति महाबलिदानी

कमल थलकमल भेंट, कुमुदनी
सिङरहार गेना गुलाबरी
इन्द्रकमल औ' तीरा मधुरी
चम्पा बेली तथा चमेली
बंशीप्रेम दनुफ औ' जूही
सभ फूले थिक
ककरो सुरभि महा आह्लादक
केओ देखवहिटा मे मनमोहक
ककरो रस बड़का औषध थिक
सभक प्रयोजन पड़ि जाइत छइ बेर काल मे
ककरो किए अनस्था करबइ
सभ फूले थिक
गाँथल रहओ सदक्षण सभटा एक ताग मे
अहिना हिंदू मुसलमान सिख बौद्ध जैन खिष्टान पारसी
रहओ एक भ
रहओ एक ठाँ
सभ मनुक्ख थिक
सभ एक्के थिक
देश आइ स्वाधीन भेल अछि सभक मेल सँ
सभक बुद्धि सँ
सभक यत्न सँ
सभक जोर सँ
सभक देह निर्माण भेल छइ
अही माटि सँ अही पानि सँ अही अन्न सँ
सभक देह सप्राण भेल छइ
अही माटि सँ अही पानि सँ अही अन्न सँ
एहि भूमिपर एहि देशपर सभक छैक अधिकार
अपना मे नहि करी अरे तकरार
ई सिखौल हे पिता अहीं हमरालोकनि केँ
कालनेमि थिक दुष्ट गोडसे देशभरिक थिक पाप
इतिहासक अभिशाप
क्षमा ने करतइ क्यों कहियो ओकर महान अपराध
शूलवेध ईसाक
सुकरातक विषपान
ताहूँ सँ बढ़ि बुझि पड़ैछ
बापू अहाँक ई अति नृशंस प्राणांत
सुनि केँ ई वृतांत -
के नहि कानल हएत ?
क्षुब्ध-क्रुद्ध भ' बधिक केँ गारि -
वृद्ध पितामह, के नहि अहाँकेर तर्पण कएने हएत ?
मुक्त देशमाताक हाथ निज कम्पित हाथ धएल !
देश अपन बलि
जन-जागरण-व्रत-उद्यापन कएल !!
जय-जय परमपिता हे गाँधी;
जय-जय जयति महाबलिदानी !
ओह, अहाँक वियोग-व्यथा मे
के नहि आइ कनइ अछि प्राणी !


★★★

महात्मा गाँधी (2 अक्तूबर 1869 - 30 जनवरी 1948) केँ केंद्रित प्रस्तुत कविता मैथिली-हिन्दीक स्वनामधन्य कवि-साहित्यकार वैद्यनाथ मिश्र 'यात्री' (नागार्जुन) द्वारा लिखल गेल अछि। प्रस्तुत कविता हुनक संग्रह 'चित्रा' सँ आ छवि सत्यम कु. झाक सौजन्य सँ एतय साभार प्रस्तुत।

गाँधी गाँधी Reviewed by emithila on अक्तूबर 02, 2019 Rating: 5

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