कवि आ कविता केँ भिन्न-भिन्न बुझबाक चाही। कविक आकांक्षा आ कविताक आकांक्षा नहि खाली भिन्न होइत छैक, परस्पर संघाती सेहो होइत छैक। एहि समयमे कवि आ कविताक आकांक्षा भयावह संघात मे अछि। अजुकाक कार्यक्रम मे एहि भयावह संघात पर गप केनाइ कार्यक्रमक आकांक्षाक संघात मे शामिल भेनाइ सं कम नहि, तें एहि पर फेर कखनो। तखन कविताक आकांक्षाक किछुओ संकेत नहि केनाइ कविता पर चर्चाक एहि अवसर केँ होहकार दिश लए जा सकैत अछि। आब, संकेत तं संकेते होइत छैक। जे-से,
कविताक बहुत रास आकांक्षा होइत छैक। ई आकांक्षा सब समय एक रंग-रूप मे नहि रहैत छैक। जेना जीवन बदलैत रहै छैक तहिना ई आकांक्षा सेहो अपन रंग-रूप बदलैत रहै छैक, जे सौभाविक। तं की कविताक कोनो सार्वकालिक आकांक्षा नहि होइत छैक! होइत छैक। एक टा मूल आकांक्षा होइत छैक। एहि मूल आकांक्षाक परिप्रेक्ष्य मे कविताक अन्य आकांक्षा अपन रुपाकार लैत रहैत छैक। ई मूल आकांक्षा की होइत छैक! की सब कविक कविता मे ई मूल आकांक्षा एकहि रंग-रूप मे अनिवार्यतः होइत छैक! नहि। सब कवि स्वतंत्रतापूर्वक एहि मूल आकांक्षा के अपना तरहे थिर करैत छथि, दुर्निवार स्थिति मे बदैलतो रहैत छथि। जाबत तक कविता लिखनहारक भेट व परिचय अपन कविताक मूल आकांक्षा सं नहि होइत छनि,ताबत धरि ओ कवित तं लिखैत रहैत छथि मुदा ओ कविक तरजा आ हौसला के नहि गहिया पबैत छथि, खाहे ततखनात कतेको नीक आ भावविमुगद्ध कविता लिखबा मे सफल किएक ने भए जाइथ। वचन प्रवीण भेनाइ आ कवि भेनाइ भिन्न-भिन्न गप छैक। से जं नहि होइतै तं तुलसीदास किएक लिखितथि जे,
‘राम भगति भूषित जियँ जानी। सुनिहहिं सुजन सराहि सुबानी॥
कबि न होउँ नहिं बचन प्रबीनू। सकल कला सब बिद्या हीनू॥’
किएक लिखितथि जे हम कवि नहि छी, नहि वचन प्रवीण छी, सब कला आ विद्या सं हीन छी! तैयो अहाँ केँ हमर सराहना लोक करैत अछि तं बस एहि दुआरे जे हमर उक्ति राम भक्ति सं समृद्ध अछि। अर्थात, संक्षेप मे ई जे कविता केँ स्वीकार आ सराहक लेल कविताक आकांक्षा सं जुड़ाव पहिल शर्त्त होइत छैक। कविताक बहुत रास गुण होइत छैक। तुलसीदासक शब्द मे कही तं,
‘आखर अरथ अलंकृति नाना। छंद प्रबंध अनेक बिधाना॥
भाव भेद रस भेद अपारा। कबित दोष गुन बिबिध प्रकारा॥’
अजित आजाद एहि शर्त्त केँ अपना ढंग सं बुझैत छथि। ओ बुझैत छथि जे ‘गप बनायब, गप्पी होएब थिक, कवि होएब नहि।’ एकर कारण की! एकर कारण ई जे कविक एक कविता हुनकर दोसर कविताक प्रसंगे अधिक आधिकारिक तौर पर अपन अस्तित्वक अर्थ पबैत अछि। से अर्थ पबैत छथि कविताक मूल आकांक्षाक सातत्य मे। ई मूल आकांक्षा मालाक सूत जकाँ कविक कविता के काव्य शृँखला मे जनमैत रहए देबाक अवसर दैत छैक।
नाना प्रकारक अर्थ, अलंकार, अनेक प्रकारक छंद रचना, भाव आ रस आदिस कविता मे तरह-तरहक गुण-दोष होइत छैक। एहि दोष शब्द पर ध्यान दिऔ। अकारण नहि जे मैथिली समाज मे छंदक संगे एकटा आर शब्दक वेबहार होइत छैक, जेना चाहक संगे ताह! छंदक संगे बेबहार होबवाला ओ शब्द थिक छल! सुच्चा कवि केँ पहिने ई स्वीकरक लेबाक चाही जे औ बाबू हमरा कवित्त विवेक नहि अछि। तुलसीदासक शब्दे कहि’ तं ‘कबित बिबेक एक नहिं मोरें। सत्य कहउँ लिखि कागद कोरें॥’
सुच्चा कवि केँ अपन कविताक मूल आकांक्षा केँ सब सं पहिने चिन्ह पड़ैत छैक। अपन निजी आकांक्षा सं कवितक आकांक्षा जं संघाती मुद्रा मे उपस्थित होइत ओकरा कविताक आकांक्षा संग ठाढ़ हुअ पड़ैत छैक। आ से अपना केँ कवि नहि मानल जेबाक जोखिमक शर्त्त पर ठाढ़ होब पड़ैत छैक।
तं! की होइत छैक विचारधारा? संसार मे विचारधारा बहुतो रास छैक, असल मे ओकरा उपविचारधारा कहनाइ अधिक उचित। दू टा मूल विचार छैक। वस्तुवादी आ भाववादी। अर्थात, वस्तु सं भावक जन्म होइत छैक अथवा भाव सं वस्तुक? एत एहि पर बेसी विवेचनक गुंजाइस नहि। तथकन ई कहब जे रोटी आ राम एक दोसरक विकल्प नहि भए सकैत अछि। निवेदन ई जे रोटियो केँ कने वृहत्तर अर्थ मे लेल जाए आ राम केँ सेहो वृहत्तर अर्थ मे लेल जाए। कने दृढ़तापूर्वक ई कहब जरूरी जे राम सँ बैर नहि मुदा, अजित आजादक कविता का मूल आकाँक्षा प्रथमतः आ अंततः रोटी छनि। जेना राम एकटा सुंदर भाव तहिना रोटी एकटा जरूरी विचार।
आधुनिक, उत्तरआधुनिक वा पराधुनिककाल मे कविताक मूल आकांक्षा प्रथमतः आ अंततः ओकर विचारधारा मे प्रगट होइत छैक। कविताक संभवाना तं भावधारा मे सन्निहित रहैत छैक, मुदा कविताक ई संभावना अपन सार्थकताक संतोख तं विचारधारा सं जोग-लगन मे पबैत अछि। संकेत मात्र सं काज चलि जाएत जे दुनिया विचार संदर्भे जाहि पिच्छर जमीन पर पहुँचाओल गेल अछि ओहि मे मुख्य विवादक कारण विचार नहि, धारा छैक। बहुतोक लेखे विचार आ विचारधारा मे कोनो अंतर नहि। एहि बात पर ध्यान रखनाइ जरूरी जे सदखनि तं नहि, मुदा अधिकाँशतः भाव अपना केँ विचारक पोशाक मे उपस्थित करैत अछि। धारा ओहि पोशाक केँ छिन्न-भिन्न कए भावक अनित्यता वा क्षणभंगुरताक पोल खोलि दैत अछि। ताञ, विचार सं ततेक परहेज नहि, विचारधारा सं परहेज। प्रसंगे कही तं आइ काल्हि तं कोनो प्रसंग पर विचार पुछनिहार कतेको भेट जेताह, मुदा विचारधारा पुछनिहार शायदे संयोगे।
भगवान कहलखिन तं कहलनि! आइ काल्हि तं सब शक्ति-स्रोत सं जुड़ल लोक सब तं सब अबल-निबल केँ इएह कहै छैक ने जे भगवान कहलनि,
‘सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।’
कतेक चाही? हम पूछै छी अपना के, अहाँ पूछू अपना के। अजित आजाद पुछलनि अपना के! ‘बेसी किछु नहि’ कविता केँ देखल जाए--
सब धर्मक परित्याग करैत हमर शरण मे आउ? हम अहाँ केँ सब पाप सं मुक्त कए देब। चिंता जुनि करी। शक्ति-स्रोत सं जुड़ल लोक सब अपना केँ भगवान सं कम की बुझैत छथि! मनुखक शरण मे मनुख केँ जेबाक बाध्यता सं बचेबाक संघर्षो केँ सभ्यताक मूल संघर्ष के रूप मे चिन्हबाक चाही। चिन्हबाक चाही एहि संघर्ष केँ। सभ्यताक प्रांगण मे अनवरत चलि रहल एहि रण केँ। एहि रण केँ जं नहि चिन्हि सकै तं चारण होइ मे कतेक देरी! विकल्प कोनो नहि, रण चारण! अजित आजाद एहि संघर्ष केँ नीक जकाँ बुझैत, भने रेखांकित करैत छथि, ‘वर्त्तमान मे कविताक नाम पर दू टा प्रवृत्ति मुख्य रहि गेल अछि – रण अथवा चारण। हम अपना केँ पहिल कोटि मे रखैत छी।’ ओ अपन पक्ष आ प्रवृत्ति केँ बीछि लैत छथि, बीछि छथि अपन विकल्प। हुनकर कविताक मर्म के बुझबा लेल एहि विकल्पक महत्त्व आ एहि स्वीकारक मर्म केँ बुझ पड़त! ओ अपन कविता मे एहि विकल्पक चयनक संदर्भ मे विचार’क महत्त्व केँ बुझैत छथि आ समयक आँचर मे लागल अहगराहीक आँच काटिक कविताक मनोरम जगत दिश नहि बढ़ चाहैत छथि। तें ओ कहि सकैत छथि जे, ‘कवितामे ‘विचार’ एकटा विचारणीय (जरूरी) पक्ष थिक। किछु गोटे विचार केँ कविता पर ‘भार’ (अनावश्यक लदनी) जकाँ बुझैत छथि आ एहि सँ अपना केँ कतियौने रहैत छथि।’
‘नहि, एतेक प्रशंसा नहि/ नहि, एतेक निंदो नहि/ / नहि, एतेक भूख नहि/ नहि, एतेक तृप्तियो नहि/ / एतेक आकुलता, एतेक निश्चिन्ति सेहो नहि किन्नहुँ/ / नहि, किछु नहि एतेक/ जतबे जीवन, ततबे किछु/ जीवनक अनुपात सँ बेसी किछु नहि/ अपन दुनू हाथ सँ बेसी किछु नहि।’ तें, ‘अपेक्षा’ ‘साँस भरि/ श्रम// श्रम भरि/ आराम// आराम भरि/ निन्न// निन्न भरि/ अन्हार// इजोत भरि/ जीवन// जीवन भरि/ सुख// दुख ओतबे भरि/ जतबे भरि मोन रहय ई सभ।’
विडंबना ई जे आजादीक संग गठित नव भारत-राष्ट्र मे हमर सभक भाषा चिर स्थगन मे समा गेल। भाषा किछु शब्द आ वाक्य-विन्यास नहि होइत छै। भाषा सभ्यताक एकटा अध्याय होइत छैक। जे भाषा संस्कृत सनक समृद्ध आ शक्तिशाली भाषा सं भिन्न भए ओकर चुनौतीक मुकाबिला करैत जीबैत आ स्वयं-समृद्ध होइत चलि आयल ओ आजाद भारत-राष्ट्र मे स्थगन आ कुपोषणक शिकार भए गेल! ओकरा जीवन व्यवहार सं बाहिर कए देबाक सबटा ब्यौंत भए गेल! जीवन व्यवहार सं भाषा केँ बाहिर केनाइक मतलब एकटा जीबैत समाज आ सामाजिकता केँ बहिष्कृत कए देनाइ सं कम की? ‘पितर केँ अर्घ्य नहि/ भाषा चाहियनि/’ पितर के? पितर जिनका लेल बँसवारि एकटा कामना छलनि विचार छलनि वंश-वृद्धिक! गवाही अजित आजादक कविता, ‘कोहबर मे कोपड़ायल बाँसक/ चित्र बनबैत काल/ विधकरीक मोन मे अवश्ये हेतनि आयल/ वंश-वृद्धिक मंगल-विचार/ एकटा कामना थिक बँसबारि/ से बुझबा मे भांगठ नहि अछि आइ’। पितर के? पितर जे आजाद भारत-राष्ट्रक स्वप्न देखलनि, जे ओहि सपना लेल रण केलनि! जं पितर केँ ठीक सं चिन्हियनि तं सत्ते वाकहरणक शिकार भेल पितर केँ अर्घ्य नहि, भाषा चाहियनि। मिथिलांचल दू राष्ट्र मे बँटि गेल! ओहू सं बेसी दुखद आ कष्टकर ई जे मैथिली जातीयताक बोध नहि विकसित भए सकल ओहि पर फेर कहियो।
कवि अपन समय आ समाजक सौंदर्यबोध आ आनंद संदर्भ केँ बुझैत बदलैत रहैत छथि। कवि स्वानुभूति केँ अनकर तदानुभूति मे बदलैत ‘आनंद’ आ ‘मजा’ क छूटल वा ओझल क्षितिजक ईशारा करैत रहैत छैक। बोध करबैत रहैत छैक जे, बहुत किछु पाबि गेलाक बादो एहि जीवन मे कते किछु स्पृहणीय छूटल रहि जाइत छैक! सबूत! ‘यात्रा’ कविता! ‘दलिसगा संग/ उसना भदइक भात आ अल्लुक सन्ना/ खयने छी की अहाँ/ खेतक आड़िपर बैसिक’/ मरुआ रोटीक संग नून-तेल-मिरचाइ/ आ कि कोनो मेला मे गमछा पसारिक’ मुरही-लाइ/ खयने छी अहाँ/ / हम खयने छी’।
की हम सब सते पनिमरू भए गेल छी! नहि कोना! नहि ई तं ई बाल किएक जे, ‘बिसलरी पिबैत जल-मन्त्री/ बोतलक पेनी मे छोड़ अइँठ पानि/ आस्वासनक मुद्रा मे उछालि दैत छथि/ बोतलक ठेपी खोलैत जनता/ तृप्त-तृप्त होइत/ विदा भए इत अछि धरिया बन्हैत’। एक समय उनिभू (उदारीकरण-निजीकरण-भूमंडलीकरण) क शुरुआती दौर मे ट्रिकिल डाउनक आर्थिकीक बड्ड चर्च-बर्च रहै। ट्रिकिल डाउनक आर्थिकीक आइ कोनो तेहेन चर्च-बर्च तं नहि, मुदा हाल तं उएह!
तखनि, ई कखनो संभव नहि जे कोनो कविक सब कविता समान रूपेँ महत्त्वपूर्ण आ स्वीकार्य हो। प्रकृत कवि आ उपकृत कविक फर्क पर फेर कखनो, अखन तं ई कहए चाहै छी, जेना प्रकृति मे उपलब्ध बहुत रास उपादान हमरा पहुँच आ अवगैत सं बाहर रहि जाइत अछि. तहिना प्रकृत कविक बहुत रास कविता केँ बुझाबाक चाही। ‘शारदा सिन्हा’ बहुत महत्त्वपूर्ण आ प्रभविष्णु कविता बनैत-बनैत अंत मे कविक अपन भावातिरेक मे अपरतिभ समाहारक शिकार भए जाइत छैक। कविता मे कवि हुसि कत जाइत अछि एहि दृष्टि-बोधक लेल एहि कविता केँ बेर-बेर पढ़बाक चाही।
कहब, अनावश्यक जे हमरा साहित्य आ कविताक प्रगाढ़ बोध नहि। मैथिली मे तं एकदमे नहि। एक टा पाठकक रूपेँ जे बुझ मे आएल से कहलौँ।
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