डरेँ नांगरि केँ पेट मे सटओने
चुकड़ी सन मुँह कएने एकटा अदंत कुकूर
क्षणहि मे रङ्ग बदलबाक चिर-अभ्यासी
ओ पाउज करैत बुढ़बा गिरगिट
आ, लोभेँ जीह चटपटबैत एकटा चितकबरा चीता ...
आदि आदि नर-पशुक समक्ष
अपन वातानुकूलित सभा-कक्ष मे
ओ अबोध सिंहशावक घोषणा कए देलक -
"बाजए नहि सत्य केओ !"
सुनतहिं
सभ हर्षनाद कएलक जयकार विवश।
कविता एक लिखबाक अछि
प्रकाशित करएबाक हेतु
पढ़ि पढ़ि केँ लोक तकरा
आकृति बनाबए हमर -
ताही योजनाक चिंता मे
निशाभाग राति धरि
पड़ल -पड़ल
भोर मे सुतैत छी ..... ।
ताहि हेतु सम्पत्तिक प्रयोजन छैक अलेल
वैमानिक बिना से संभव अछि कहाँ
मिथ्या - भाषण तँ बजबाक चतुरता थिकैक
ढ़ीलढ़ाल अंगरखा मे रखैत छी भावना उदार
दोबर व्यक्तित्वक बंडी पहिरैत छी
चुस्त पयजामा हमर कठोर व्यक्तित्वक प्रतीक
आँखि परक शीशा सँ देखी नहि असल रूप
लागए नहि दृष्टि -दोष -
मुक्त चरण चट्टी
आ शुष्क झोड़ा एक
लटकाबी,
लटकल छी जहिना हम एक कात....।
पोड़ा आ कुण्ठा सँ संत्रासित
भूख आ बेकारिक विरोध मे
पीड़ा तकर नहियों जँ बूझि सकए
एकटा नाटकीय व्यक्तित्वक आभास धरि भए जाइक
कविताक संग फोटो छपब जरुरी
तेँ फोटो खिचाएब
मुदा, कविता पढ़ैत काल -
तेल लेब छोड़ि
तावत दाढ़ी बढ़बैत छी...।
नहि सोहाइत अछि पीयर
गाढ़ अथवा उदास
कोइलीक बाजब
एखनहुँ धरि नीक लगैत अछि
बसात मे डोलैत पैघ-छोट डारि-पात
नीक लगैत अछि कारी कारी भमरा
आ, टटका फुलाएल कोनो फूल
आ, कोढ़ी तँ आर अधिक।....।
जानि नहि किएक
सभ मे अहीं केँ देखैत छी
जानि नहि
सभठाम एकटा गंधहीन मादकता
सभठाम एकटा शब्दहीन स्वर-वितान
एकटा पातर सन मेटाइत ज्योति -रेखा !
आब हमर इच्छा
मेटाइत पातर ओ रेखा धए लटकि जाइ
लटकल रही अनन्त आकाश मे
निराधार
आ, मेटाइत -मेटाइत ओकरा छोड़ि दी
अकस्माते
आ, बौआइत रहि जाइ मुक्त,
निरबलम्ब !
हम से सभ किछु नहि कए पबैत छी
कारण,
जखन अहाँक सम्पूर्ण व्यक्तित्वक स्मृति मे
संज्ञाहीन हमर अस्तित्वक सर्वनामहु नहि रहल
एकटा प्रश्नचिन्ह
अथवा सेहो नहि -
ओना अधम पुरुषक सम्बोधन सँ
हम होइत रहल छलहुँ तृप्त;
आब अहाँक अन्यपुरषहुक स्मृति
हमरा सहल नहि जाइत अछि।
जीवन -यापनक अबलम्ब
अहाँक ओहि एकान्त -संकेतक
स्मृति मात्र !
इजोरिआ दूध
हमर कोठली मे हराएल अछि
हँसैत चमकैत चोर-चान
मेघ-खण्ड मे खेत टपैत
पड़ाएल चलि जाइत अछि।
चोर लए इजोत !
"स्वीच ऑन" करितहि
ई इजोरिआ दूध
कोना सुखाए गेल ?
एकटा सीमा -रेखा मे बान्हल जिनगी
एकटा वृत्तक आवृत्त दैत बेर-बेर
थाकल सन मनः स्थिति
आ, पाकल सन मन
मुदा, काँचे -
बासि भातक गंधयुक्त मादकता मे डुबैत
ओंघराए जएबाक इच्छा होइत अछि
कोनो धुरिआएल बाटक कात मे।
इकाइक एकटा मापदण्डक रक्षार्थ
सामाजिक अंकुश सँ बचैत-बचैत
मन आ बुद्धिक निरंतर द्वन्द -युद्ध मध्य
जर्जर भेल जाए रहल अछि
हमर जड़ देह आ मुक्त प्राण !
अहाँ जनिकर छी
तनिके लग रहू
हमरा कोनो विरोध नहि,
तारतम्य नहि,
निषेध नहि,
मुदा,
मुक्त - प्राणकेँ एना किएक जकड़ने छी ?
विचरए दिअ प्राण-पाखी केँ
इच्छा -आकांक्षाक पाँखि बलेँ
बैसए दियौक
सुभग सुरभियुक्त कोनो डारि पर अपना मने
शंका आ नियंत्रणक फाँनी लगाए
प्राणहन्ता जनु बनू हे देह,
हाथ जोड़ैत छी !
श्री हंसराज एकटा अलगे प्रकारक कवि छलाह मैथिली मे| कविताक संग हिनकर ट्रीटमेंट एकदम हटिक' छल सब सं| हिनका सं गुजरबा काल लगैत छैक जेना कविता सब एकदम देह सं सटिक' जा रहल अछि| अशेष आभार ई-मिथिलाक जे एहि हेरायल कवि कें पुनः आनल अछि लोकक स्मृति मध्य|
जवाब देंहटाएं