रिपुंजय ठाकुरक तीन गोट कविता

रिपुंजय एखन मैथिली मे टटके अएलाह अछि। दिल्ली विश्वविदयालय सँ इतिहास मे स्नातक तथा परास्नातक बाद एखन शोधार्थिक रूप मे सक्रिय छथि। प्राचीन भारतीय इतिहास आ पुरातत्वक अध्ययनक संगहि ई साहित्य मे सेहो अभिरुचि रखैत छथि। हिनक कविता सभ मे सेहो एकाधिक ठाम इतिहास अबैत अछि आ ऐतिहासिक कीर्ति पुरुष सँ तादात्म स्थापित करैत अछि। ई अपन प्राञ्जल शब्द सँ प्राचीन तथ्यक नूतन ट्रीटमेंट करैत कविता मे जीवन भरैत छथि। पात्र सँ संवाद करबाक शिल्प हिनक कविता केँ विशिष्ट बनबैत अछि। अतीतक अथरबोन मे हँथोरिया दैत ई समकालीन परिस्थिति केँ रेखांकित करैत छथि। दू गोट भिन्न कालखंड केँ जोरैत हिनक कविता सभ ओहि सेतुक काज करैत अछि जेकरा माध्यम सँ पाठक एकहि संग दुनू कालखंड सँ परिचित भए सकैत छथि। समकालीन कविता मे एहि प्रवृतिक अभाव देखल जा रहल अछि। एहन मे रिपुंजयक कविता अपन विशेषताक लेल पाठक केँ आकर्षित करैत छनि। मैथिली साहित्यक एहि पल्लव मे कविताक सौंदर्य आह्लादित करैत अछि। आउ एहि नवीन स्वर कें प्रस्तुत तीन गोट कविताक माध्यम सँ हमरा लोकनि आत्मसात करी।

१. स्वयंवरक राम 

मंजुल मंगलमय दुनू कुमार
जोड़ी हुनकर मधुर मनोहर
बढ़ा रहल छथि मिथिला मे शोभा
नर-नारी अछि ठाम-ठाम पर
अपन श्रृंगारिक नेत्र सँ स्वागत मे ठाड़
धैर्यक बान्ह नारीकेँ भासि गेल
दुनू कुमारक मुखचंद्र देखि।
हुनकर वस्त्र, तरकसक नूर देखि
कान मे सुवर्णकली, कमर मे पीताम्बर देखि
माथक दिनकर, व्यवहारक विनम्रता देखि
खिलैत देह आ चमकैत जनेऊ देखि
होइत छैक सभकेँ आश्वाशन
हुनकर वंशगुणक मजबूतीक
हुनकर अवतारक प्रमाणक।
किछु नहि सूझि रहल छैक हुनका
ककरो नहि सूझि रहल छैक किछ और
सभकेँ जेना चौंन्ह लागल छैक
सभक नयन अयन राम लखन पर छैक
आगू के लोक-बेद सेहो बैसल छैक
गौर-श्यामल जोड़ी के प्रतीक्षामे।
देखू जनकदुलारी के स्वयंवर मे अईलाहन
देखू अहाँ सब हे सखी पहिलबेर
कतेक मेहनत विधाता केने हेता!
कतेक वास्तु-शिल्प ओ गढ़ने हेता!
राम-लखनक मूर्ति सजावट में
जिनक नख-सिख सुन्दर
चमक रहल एहि स्वयंवरक मेला मे
ठहरि गेलि अछि हमर आँखि
कामदेवक आगमन भेलै जेना फेर..
संभव अछि ताहिं राजर्षि जनक केलाहन
ई उत्तम इंद्रपुरी सदृश ठाट बाटक व्यबस्था।
सखि देखू रघुवंशीमणि केर तेज प्रताप
किशोर अवस्थाकेँ बल प्रतिहार
मानू धनुष से मेरु पर्वत के रौंद देता
निश्चय ही महादेवक धनुष ई तोड़ता
और अवधी मैथिल झूमता विवाह उत्सव पर
पलक हमर नहि भटक रहल अछि
भ गेल छी योगिनी टकध्यान मे
फलपूर्ण गाछक पत्ता हरियर होइ छै
विद्वानक व्यवहार विनम्र होइ छै
तादृश सीतापति संकोची के अभिनय मे छथि।
हे जनकमधुश्री आबि देखू चितपावन केर हाव-भाव
बहुत भेल लोक लाज,एखन किन्चित सकुचाऊ नै!
हमरा बिसबास अछि अहाँके विदेहता पर
आब नहि अनधैर्य रहब अहाँ बड़ी काल धरि।
मंजुल मंगलमय दुनू कुमार
जोड़ी हुनकर मधुर मनोहर
बढ़ा रहल छथि मिथिला मे शोभा।

२. हे विद्यापति 

कविशेखर, कविकोकिल अहां राजपंडित
जनकवि, उग्नापति अहाँ साहित्य शिरोमणि
कतअ रुसल छी, कतअ विदेह छी
कनि आबि अपन मिथिला निहारु हे!
बाल्यकाल सँ अहाँककृत कविता पढ़ै छी
अहाँक गीत सब गूम-झूम गाबै छी
रस, ज्ञान -दर्शनक आनंद लै छी
सनातन इतिहास आ शास्त्रक गूढ़ समझै छी
गोसाउनीक गीत, पदावली,
कीर्तिलता आ कीर्तिपताका
हम जखन-तखन पढ़ै छी
जहिं सँ समझै छी हम मिथिलाक गौरव
त्रिहुतिआ संस्कार आ संस्कृति
अहाँक भू-परिक्रमा ग्रन्थ पढ़ि
हमहूँ ज्ञानक परिक्रमा करै छी
संगहि पुरुष-परीक्षा ग्रन्थ पढ़ि
पुरुष, पुरुषार्थ आदिकेँ अर्थ समझै छी।
हे विद्यापति
कनि आबि जन्म भूमि मिथिलाकेँ देखू हे
मैथिल विद्वताक अछि अहाँक जरुरत
दियौ आशीर्वाद मैथिल ज्ञान परंपराकेँ
अछि संकट मे मैथिल पांडित्य
विस्मृत भ रहल छथि मिथिलाजन
मीमांसा दर्शन, नव- न्यायक ज्ञान
अज्ञानक संकट सँ बाहर करू हे
पुनःजानकी देश मे सरस्वती आ
लक्ष्मीकेँ निवास बनाऊ हे
जतअ पढ़थिन ज्ञानी पंडित
शास्त्रार्थ करथिन दार्शनिक
ई रिपुंजयक दृढ़ विश्वास अछि
हे ज्ञान भक्तिक दीप भण्डार
कतअ रुसल छी, कतअ विदेह छी
कनि आबि अपन मिथिला निहारु हे।
कविशेखर,कविकोकिल अहां राजपंडित
जनकवि,उग्नापति,अहां मैथिल शिरोमणि।

३. अपन देश 

अपन देश सँ दूर रहि के
सुखों मे दुखक अनुभूति अछि
बाध्य मुँह तकैत प्रवासी बटोही
भटक रहल छथि पूरब-पश्चिम
रोजगार आ छाया केँ आश मे
एक पेट भोजनक इंतजार मे
लोक कहै छथि युग बदैल गेल
किन्चित ओ होश मे नहि छथि
धन संपत्तिकेँ मान-घमंड मे
आधुनिकताकेँ मदहोशी मे
विलायती संस्कृतिकेँ जोश मे
आब लोक बटोही केँ बटोही
सराबकेँ मादक पदार्थ
अविद्याकेँ अवगुण
अन्यायकेँअधर्म
नहि कहै छथि।
बटोही सन हमरो दशा अछि
आबि अहि दूर नगर परदेश मे
छी अब हम व्यथित बनल
फँसि गेलौं महानगरक माया मे
मन मे अनेक लोभ पनपल
जिंदगी के प्रकृति बदलल
ग्राम छूटल, भतार छूटल
माछक स्वाद छूटल,भोज छूटल
मिथिलाक पान मखान छूटल
राखी लेल दुनू हाथ तरसल
भैयादूज पर कपार तरसल
दुर्गापूजा बीतल,दिपावली बीतल
नदीक स्नान छूटल,खलिहानछूटल
भगवतीक पूजा छूटल,मृदु भाषा छूटल
अपन देशक हाट-बाट छूटल
मन करैत अछि घुरि आबि
जानकीक मिथिला देश मे।
कहैत छथि मेनका कुमारी
एक-एकटाकेँ अहाँ तोड़ि चलू
मनक भ्रम आ शहरी दिखाबा
अपनाउ पूर्वजक बौद्धिक ढंग
बनूँ अहाँ सत्य-प्रेमक पुरुख
साधारण,उत्तम आ मृदु मनुख
तखन देखियौ मैथिल संस्कृति
कतेक सभ्य अछि,कतेक सुसंस्कृत
जाँहि पर रामायण बौरायल अछि
अपन देश से दूर रहि के
सुखों मे दुखक अनुभूति अछि।



रिपुंजय ठाकुरक तीन गोट कविता रिपुंजय ठाकुरक तीन गोट कविता Reviewed by Unknown on मई 10, 2017 Rating: 5

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