कोना क' जीब अहाँ एहेन ऊष्माविहीन जीवन

शारदा झा 

समकालीन मैथिली कविता मे कवियित्रीक अभाव सहजहि अकानल जा सकैत अछि। एहि चिंतन पर साकांक्ष होइत जे किछु नाम सद्यः सोझाँ अबैछ ताहि मे पहिलुक नाम अछि श्रीमती शारदा झा। शारदा जी बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय सँ स्नातक प्रतिष्ठाक उपरांत अंग्रेजी तथा दर्शनशास्त्र मे स्नातोकोत्तर करैत एखन सम्प्रति हैदराबाद मे शिक्षण वृत्ति सँ सम्बद्ध छथि। एमहर किछु समय सँ हिनक कविता निरंतर विभिन्न पत्र-पत्रिका सभ मे छपैत,परिचर्चाक केंद्र बनैत पाठक आ आलोचक दुनू केँ आकर्षित केलकनि अछि। शारदा जीक कविता मे उपस्थित दार्शनिक विपुलता, एब्स्ट्रेक्टक नूतन प्रयोग,अभिव्यक्तिक सहजता आ रुचिकर भाषा शौष्ठव हिनका समकालीन मैथिली कविता मे विशिष्टताक संग स्थापित करैत अछि। एकाधिक कविता ट्रांस सँ उठैत अपन विविधता आ सरोकारी प्रवृत्तिक कारणे समाजक एकहेक परिवेश मे स्वीकृति पबैत अछि। अपन प्रवाह मे सौम्य ई कविता सभ कलकल बहैत चुप्पा प्रहार करैत अछि,सचेत करैत अछि,प्रतिकार करैत अछि आ पाठकक स्मृति पर अपन एहि मिश्रित शिल्प सँ विशेष प्रभाव उत्पन्न करैत अछि। हिनक सार्थक उपस्थिति मैथिलीक अजस्रता केँ आओर सम्पन्न करत एहि उमेदक संग एहिठाम तीन गोट कविता परसि रहल छी:

शारदा झा केर तीन गोट कविता 


१. बिना अपराध बोधकें

अपन कल्पना आ स्वप्नक दुनिया मे
स्त्री होइत अछि मात्र एक गोट स्त्री
सामाजिक सबटा सम्बन्ध केँ नकारि कँ
ओ  चुनैत अछि अपना केँ 
बिना कोनो अपराधबोध केँ

कोनो गाछक छाहरि तर
निसभेर दुपहरियो मे हेरैत अछि स्त्री
पियर अकास मे नील चन्द्रमा
जे सभदिन दूनू पपनिक बीच
बहैत रहैत अछि नोनछराइन पानि मे 

कारी भ' जाइत छै सुरुज स्त्रीक कल्पना मे
आ ओकर छाँह मे जिअबैत अछि ओ
अपन भविष्यक सुरुजमुखीक खेत 
ओसक बुन्न ओढ़ने ठाढ़ तरेगन सभक चमक
गड़' लगैत छै स्त्रीक तरबा मे काँट जकाँ
पटिया पर ओछाओल देह पर
अभर' लगैत छै 
मोनक घाहक चिन्ह

ठोर बनि जाइत छै धरगर हाँसू
जे काटि क' खसा देबए चाहैत छै
सबटा प्रेम गीत आ विरहक राग
जकरा सुनबाक लेल 
लगले रहि जाइत छै ओकर मोन
स्त्रीक वास्तविकता आ ओकर कल्पनाक बाट
हेरा जाइत छै समाजक जंगल मे 

ओ सबटा जनितो-देखितो 
नहि उठबैत अछि वास्तविकताक बाट दिस डेग 
अपन स्वप्नक संसार मे 
ओकर हरियर लहलहाइत गाछ सन मोन अपनहि मे परिपूर्ण
अपन जीवन जीबि रहल अछि
मात्र एक गोट स्त्री भए जिनाइ
करैत  छै ओकर अस्तित्व केँ पूर्ण 
बिना कोनो अपराधबोध केँ

२.प्रेम कविताक बाद

अनेको प्रेम-कविता पढ़लाक बाद
हम ताकए लगैत छी प्रेम
अपन चारू दिस
नहि अभरैत अछि हाथ मे कोनो हाथ
देखाइत अछि छाउर उधियाइत 
जे बन्न नजरि मे पैसि
मेघाच्छादित लोहित अकास
उतारि देने अछि आँखि मे
आ अधर पर अधीर विस्मृत सन मुस्कान 

तन्द्रा टुटने अबैत अछि ध्यान
तिलिस्मी दुनियाँ सँ आबि गेल छी बाहर
हाथ मे किताब आ ओकर फड़फड़ाइत पन्ना
कहि रहल अछि व्यंग्य मे
आब प्रेम-कविता मे फेर सँ प्रेम तकनाइ 
नहि हैत सम्भव

हम बीछए लगैत छी 
ओहि किताब सँ 
झहरि झहरि क' खसल शब्द सब
जाहि सँ अबैत अछि अतीतक सुवास
ओहि सँ बहराइत सिनेहक धार 
तीतल हमर मोन ओकर कागत पर
आ पैसि गेल देहक नस-नस मे सुरा जकाँ
हरि नेने हमर सोचबा आ बुझबाक शक्ति

आकि तखने टूटैत अछि स्वप्न
ठीके त' छै
कविता लिखलाक बाद
सम्पन्न भ' जाइत छै काज शब्दक ओहिना
जेना प्रेम केलाक बाद 
नहि रहि जाइत छै बाकी ओकर कोनो अवशेष
दृष्टिगत त' नहिए टा

बचैत छै मात्र ओहि क्षणक टीस
जखन अपन हृदयकेँ हविष्य बना 
समर्पित कए देने छलियै 
सुखक आभासी जाल मे
मुदा हे हतभागी प्रेमी हृदय
समयक मुसरी कटलक आ कएलक छिन्न-भिन्न
ओहि जाल केँ

फेर सँ गँहीर अंधकूप मे 
खसि पड़ल छपाक सँ
जौर सँ छूटल डोल
हम ऊब-डूब करैत आपस्यांत भेल छी
सांस लेबाक प्रयास करैत
फेर सँ प्रेम-कविताक किताब हथोरैत छी
प्रेम मे जीबाक चेष्टा करैत
डूबैत आ मरैत
प्रेम -कविता पढ़ैत
प्रेम कविता गढ़ैत
एकटा आओर पन्ना उनटौबैत छी

३.विरोधक स्वर

डरू ओहि दिन सँ हे प्रचंड सूर्य
जाहि दिन बन्न भ' जायत फूल फुलायब
अहाँकेँ देखि आँखि फोलब
क' ने दिए ओ विरोध
अहाँक धधकैत आगिक धाह केर
डरू हे सूर्य, डरू

जहिया सबटा कोमलता आ सुंदरता
न्याय आ समानता
प्रेम आ आह्लाद 
रहि जायत किताबहि टा मे
तहिया तरबाक त'र बचि जायत मात्र
सेरायल जमल लावा
परती सुखायल कारी धरती

नहि क सकत ओकर आत्मा केँ उजागर
अहाँक कोनो टा किरण
नहि फूटत नबका कोंपल
नहि जनमत कोनो बीया
यैह प्रतिवाद हैत फूलक
नागफणियों पर नहि उतरत कहियो चान 

डरू हे सूर्य, डरू
कोना क' जीब अहाँ एहेन ऊष्माविहीन जीवन
सुखाए लागल अछि गाछ
मौला गेल अछि कोंढ़ी सब
सम्हरि जाउ
प्रतिरोधक ई विध्वंसक स्वर
मूक अछि​


***

शारदा झा  सँ jhasharda@gmail.com पर संपर्क  भ' सकैत अछि. 
कोना क' जीब अहाँ एहेन ऊष्माविहीन जीवन कोना क' जीब अहाँ एहेन ऊष्माविहीन जीवन Reviewed by Unknown on अप्रैल 15, 2017 Rating: 5

3 टिप्‍पणियां:

  1. मैथिलीक नव कविता मे स्त्री बोधक ई कविता सभ बन्द कोठलीक केवाड़क जिंजिर जकाँ बजैत बुझा रहलए। कवयित्री शारदा जीक स्वागत हो।
    जेना मन अछि, हम पहिले बेर पढ़लौंहें हिनक कविता।
    बधाइ। सस्नेह

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    1. प्रणाम! अहाँक उत्साहवर्धक शब्द आशीर्वाद बूझि ग्रहण करैत छी सर।

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