मिथिला कहियो यात्री केँ नहि चिन्हलक


गद्य ::
यात्री-नागार्जुनक मिथिला : किछु अंश
— दिलीप कुमार झा ■


यात्रीक मोन सदिखन मिथिलाक दुरावस्था देखि छटपटाइत छलनि, दोसर-दोसर लोक हिनक व्यक्तित्वक लाभ ल' लेलक मुदा हम सभ समवेत रूप सँ, हिनक लाभ नहि ल' सकलहुँ। ई ओहन मिथिलाक पुत्र छलखिन जिनका नेतृत्व मे मिथिलाक कायाकल्प भ' सकैत छल मुदा हमरालोकनि यात्री केँ चिन्ह नहि पौलियनि, ई हमरालोकनिक जातीय स्वभाव अछि अपन मूल्यवान वस्तु केँ बहुत विलम्ब सँ चिन्हैत छियैक। एहन-एहन विरल व्यक्तित्व कोनो भूमिपर सय-दू सय-चारि सय बर्खक बादे जन्म लैत अछि, से जँ जँ दिन बीतत यात्रीक महत्ता, हुनक कविताक महत्ता, हुनक अन्य साहित्यक महत्ता, हुनक मिथिलाक विकास आओर परिवर्तनक लेल देल गेल विचार आओर सुझावक महत्ता भकरार होइत जाएत, आधुनिक मिथिलाक परिकल्पना यात्रीजीक कविताक बिनु विश्लेषण कयने संभवे नहि अछि। एहि प्रसंग मैथिलीक प्रसिद्ध कथाकार राजमोहन झा कहैत छथि, "सत्य पूछी तँ मैथिली आ मिथिला कहियो यात्री केँ नहि चिन्हलक, चिन्हबाक सामर्थ्ये नहि रखलक। तेँ कोनो आश्चर्य नहि जे हुनक मृत्युक बाद हम कतेको पढ़ल-लिखल लोकक मुँह सँ सुनल जे 'नागार्जुन एतेक पैघ साहित्यकार छलाह से सत्य पूछी तँ आब हुनक मृत्युक बादे हमरा बुझ' मे आयल अछि।'

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यात्री केँ मिथिला सँ एतेक प्रेम छनि, जतेक कोनो मनुक्ख के अपना माय सँ होइत छैक। यात्रीक रूप मे लिखथि वा नागार्जुनक रूप मे, अपन मिथिला सँ असीम सिनेह करैत छथि। ओ सदिखन अपन आँखि-कान खोलि क' अपन मिथिला के देखैत रहलाह, ओ अपना केँ मिथिला भूमिक ऋणि मानैत छलाह, अपन मातृऋण चुकेबाक सेहो अभिलाषा रखैत छलाह, हम तँ ई कहब जे ओ मात्र अभिलाषा नहि रखलनि जे जे ओ क' सकैत छलाह से से कयलनि आओर भविष्य मे मिथिलाक पुनर्जागरणक लेल विपुल साहित्य रचि गेलाह। मात्र ओकरे जँ हमरालोकनि विश्लेषण क' ली तँ मिथिला केँ आगू बढ़ै सँ, पुनर्प्रतिष्ठापित होइ सँ कियो नहि रोकि सकैत अछि। एकटा हिन्दी कविता मे अपन मातृऋणक प्रति कहैत छथि, "विपुल उनका ऋण सधा सकता मैं दशमांश"। मिथिलाक आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक पछिड़ापन यात्री केँ कचोटैत रहलनि अछि। ओ अपना सृजन मे सदिखन मिथिलाक भूमि आ मिथिलाक लोक केँ केन्द्र-बिन्दु मे रखलनि। 

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"खोंता सँ बहरएबाक ब्योंत
भए गेल प्रात
टुटि गेल निन्न
ओतइ देखू हम पड़ले छी
दए रहल मोन उठबाक नोंत
झाँझनक फाँक सँ हुलकि-हुलकि भोरुक इजोत।"

मने कहबाक ई जे यात्री कहि रहलाह अछि जे प्रात कहिया ने भ' गेल, देश-दुनियाक बन्धु सभ कहिया ने एहि बात केँ अकानि लेलनि, ठेकानि लेलनि, हमरालोकनि की एहिना सुतल रहब ? झाँझनक फाँक सँ हुलकी दैत रहब। नहि! नहि! आब हुलकी देब बन्न करू। आउ सभ गोटे भोरका बसात लगाबी, नवका सुरुज उगाबी, नव-नव फसिल लगाबी जाहि सँ हमर प्राण-प्रिय मिथिला भूमि मे ओ सभ विचार आ वस्तुक निर्मल सरिता प्रवाहित भ' सकय। जे एकटा समृद्ध ओ सुसंस्कृत मिथिलाक लेल अनिवार्य अछि। 

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दिलीप कुमार झा (जन्म: 4 जनवरी, 1969) मैथिलीक सुपरिचित कवि-लेखक छथि। अरुण स्तम्भ (कविता-संग्रह), बनिजाराक देसमे (कविता-संग्रह) आ दू धाप आगाँ (उपन्यास) हिनक प्रकाशित सँग्रह सभ छनि। एकर अतिरिक्त पत्रिका 'अरुणिमा'क सम्पादन। प्रस्तुत अंश हुनक शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक 'यात्री-नागार्जुनक मिथिला' सँ प्रस्तुत अछि। हुनका सँ dilipkumarjha4169@gmail.com पर सम्पर्क कएल जा सकैत अछि। 
मिथिला कहियो यात्री केँ नहि चिन्हलक मिथिला कहियो यात्री केँ नहि चिन्हलक Reviewed by emithila on जुलाई 13, 2020 Rating: 5

3 टिप्‍पणियां:

  1. अंश पढ़ि बहुत नीक लागल। पोथीक प्रतीक्षा अछि।
    बढ़ाई।।

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  2. रोचक अंश, मुदा एतबा थोड़ अंश सं मोन नहि भरल। पोथीक आकुल प्रतीक्षा। दिलीप भाइ कें शुभकामना आ अहूं के धन्यवाद।

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  3. प्रस्तुत अंश पढ़लाक बाद पूरा पोथी पढबाक लिलसा जागि गेल अछि। दिलीप भाइ सहज सोझ आ प्रवहमान भाषा मे यात्री सं हमर सभक परिचय करबैत छथि। धन्यवाद दिलीप भाइ कें आ ई मिथिला कें।

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