हमरा चिन्है छहीं ! हम छियै 'गुलो' मंडल~ सुभाषचन्द्र यादव

'ई-मिथिला' पर आइ सुभाष चन्द्र यादव'क हाले प्रकाशित उपन्यास 'गुलो' जकर लोकार्पण पटना मे सम्पन्न दोसर मैथिली लिटरेचर फेस्टीवल मे कयल गेल छल, कें एकटा मनलग्गू अंश देल जा रहल अछि. जनतब हो कि ई उपन्यास एहि सँ पहिने मैथिली द्विमासिक पत्रिका-मिथिला दर्शन मे धारावाहिकक रूप मे प्रकाशित भ' चुकल छल, आ पछिला किछु समय सँ अपन भाषा एवं वर्तनीक ल' कें लगातार विवाद मे बनल अछि, जकरा सुभाषचन्द्र यादव द्वारा 'पचपनिया मैथिली'क नाम देल गेल अछि. पोथीक अंश' ओकर  भाषा ओ वर्तनी मे  बिना कोनो सुधार संग देल जा रहल अछि, पढ़ि क' अपन विचार देब~माॅडरेटर.

'हमरा चिन्है छिही ? ने चिन्है छिही त' चिन्ह ले. हम छिऐ गुलो मंडल. अही चौक पर घर छै. हमरा संगे ठेठपनी केलही त' बूझि ले. हम छिऐ गुलो मंडल.'- ककरो पर खिसिआयल त' गुलो इएह कहै छै.
पचास-पचपन सालक गुलो लिकलिक पातर-ए. चाह बेचइ-ए. दोकान पर बैठल-बैठल खोंखी करैत रहइ-ए. दम्मा छै. घरनियो रोगाहि छै. ओकरो दम फुलैत रहै छै. ऊ दोकानक एक कात मे बैठल रहइ-ए. कोनो काज नै करइ-ए. दोकान टुकदुम-टुकदुम चलै छै. बस डेढ़-दू सेर दूधक खपत. आ सेर तीन पौवा दूधक चाह त' ऊ सब अपने पी जाइ-ए. ओकर परिवार मे सब चहक्कर छै. दू बेर भोर आ दू बेर सांझ चाहबे करी.
गुलो पहिने गोंठ सिपौल मे रहै. आब कोसी चौक पर रहइ-ए. गोंठ मे मरौसी बासडीह रहै ; घर रहै. गुलोक बाप रेलवे मे पेटमेन रहै. गुलो आ गुलोक दुनू बहीन छोटे रहै, तबे माय मरि गेलै. गुलोक बाप मुनीलाल पर बिपति पड़ि गेलै. नौकरी करय कि बाल-बच्चा कए पोसय ? बनरजी साहेब सहरसा मे रेलवेक बड़ा बाबू रहै. बड़ा बाबू लए मुनीलाल सिपौल सए माछ लाए जाइ. बड़का-बड़का जिन्दा कबइ. तैं बड़ा बाबू कए मुनीलाल बड़ प्रिय. मुनीलाल नौकरी छोड़ि देत त' ओहन सुंदर माछ बड़ा बाबू कए के खिएतै ? बड़ा बाबूक मन नै रहै जे मुनीलाल नौकरी छोड़य. सेहो रेलवेक सरकारी नौकरी. लेकिन नौकरी नै छोड़त त' धीयापूता कए के पोसतै ?
बड़ा बाबू कहलकै- 'मुनीलाल, हम कोहने नेही सोकता तुम चाकरी कोरो ना चाकरी छोड़ दो. तोमारा मोरजी'.
मुनीलाल नौकरी छोड़ि देलक. घरे लग चाहक दोकान शुरू केलक. दोकानेक कमाइ सए धीयापूता कए पोसलक. बेटा-बेटीक बियाह केलक. सब कए सखा-संतान भेलै. जेठकी बेटीक भाग नीक नै रहै. तीन संतानक बाद ओकर मांग पोछाय गेलै. ससुरारि मे अभेला हुअय लागलै त' मुनीलाल बेटी आ नाति-नातिन कए अपने लग लाए आनलक. नाति कए चाहक दोकान पर राखय लागल. नाति चरफर-चलाक रहै. एक बेर मुनीलाल बेराम पड़ल त' नाति अकसरे दोकान सम्हारि लेलकै. तहिया सए वएह दोकान चलबय लागल. बाद मे नाना कए ठकि कए बासडीह लिखा लेलक. गुलो कए ओतए सए भागय पड़लै. गोंठ सिपौल छोड़ि कए कोसी कए कोसी चौक, सिपौल आबि गेल. रोड कात मे बिहार सरकारक जमीन पर बसि गेल आ चाहक दोकान शुरू केलक. गुलो अपन भगिना कए कहियो माफ नै केलक. भगिना आब पैसावला भाए गेल छै आ गुलो कंगाल.
रेलवे मे रहैत मुनीलाल लोहा-लक्कड़क बहुत सामान बनबेने रहय. छोट-पैघ खुरपी, कोदारि, खंती, दबिया, कुड़हरि, भाला, बरछी. ई सब अखनियो गुलोक घर मे छै. इएह ओकर बपौती छिऐ. बाप-पुरखाक छोड़ल और कुइछ नै छै. गुलो अथाह चिन्ता मे पड़ल रहइ-ए. ओकरा कहियो कोय हंसैत नै देखने हेतै.
रिनियाँ बहुत सुंदर छै. अपन जेठकी बहीन रूनियाँ सए बेसी सुंदर. एक त' रूने ततेक सुंदर रहै जे ओकर बियाह ओहिना भाए गेलै. गुलो कए कुइछ रहबो नै करै जे दइतिऐ. दस गोटय कए खिया देलकै सएह बहुत. लेकिन रिनियाँ त' जुलूम छै. हंसइ छै त' बुझाइ छै जेना फूल झड़ैत हो. फूले सन उज्जवल हंसी. रिनियाँक हंसी मे जादू छै. चुम्मक जकां खींचै छै. निश्चल निर्मल हंसी. इजोरिया जकां छिटकैत. ओकर चलइ के, बोलइ के, ताकइ के ढंग लोग कए मोहि लइ छै. जे देखलक देखिते रहि गेल.
रिनियाँ ककरो कुइछ कहि दइ छै. बात केहनो रहौ, खराब नै लागै छै. एक टका मे दू गो बीड़ी दइ छै. रिनियाँ कए दू गो देलक त' कहै छै- 'ईह बुढ़बा ! दुइए गो !' बीड़ीवला एकटा और दाए दए छै.
पावरोटी वला कए कहलक- 'हौ ! तू बड़ कंजूस छहक !' आ लहकलहा पावरोटी उठा लेलक. बेकरी बला टुकुर-टुकुर ताकैत रहल.
ककरो केला खाइत देखलक त' बाजल- 'भैया, अपने टा खाइ छहक !' आ ऊ एगो केला दाए देलक.
रिनियाँ कए चप्पल नै छै.अइ शीतलहरी मे खालीए पएरे दोकानक टहल टिकोरा करइ-ए. दूर मे गड़ल कल पर सए पानि आनइए. चाहवला गिलास धोइ-ए. कखनू चीनी त' कखनू पत्ती आनय दोकान जाइ-ए. पएर ठरि कए लोहा भाए जाइ छै. कहियो छोटुआक चप्पल पहीर लेलक त' दुनू भाइ-बहीन मे मारिपीट भाए जाइ छै.
अंगना घर मे झाड़ू देनाइ, बरतन मांजनाइ आ भनसा केनाइ रिनियाँक ड्यूटी छिऐ. माय बैठल-बैठल अढबैत रहै छै. मायक अढायब रिनियाँ कए खराप लागै छै. ऊ त' अपने मने सबटा काज करिते छै. तइयो माय कंठ पर चढ़ल रहै छै. रिनियाँ पिनकि जाइ छै- 'नै करबौ.'
'हे देखने जाहक अइ छौड़ी कए !' माय कहै छै.
रिनियाँ रोख नै राखइ-ए. लगले काज मे भीड़ि जाइ-ए जेना कुइछ भेले ने हो. कतबो गारि, कतबो बात-कथा कहौ, रिनियाँ बिसरि जाइ-ए. आ अंगने सए निहोरा करइ-ए -'बबा, कनी टा चाह हमरो दएह'.
'देखबहक छौड़िए ! काए बेर पिबही गे !'-बबा तमसाइ छै.
रिनियाँ कोनो उतारा नै दइ-ए आ चुपचाप झाड़ू लगबैत रहइ-ए. ओकरा इसकूल मे पांच सय टाका भेटल रहइ. पोशाक राशि. दीदीजी कहने रहइ-'जुत्ता कीन लिहे.'
रिनियाँ पूछै छै-'बबा, कहिया कीन देबहक ?'
'लीहे ने. कीन देबौ.'- बबा सब दिन इएह गप कहै छै. कहियो कीनइ नै छै.
एक दिन रिनियाँ कहलकै- 'बबा, पांच गो टका दएह'.
'की करबिही ?'
'मेला देखबै'.
'ईह ! बड़ भेली-ए मेला देखैवाली. एतए सए भागबे कि नै ?'- बबा उखड़ि गेलै.
रिनियाँ पर रणचंडी सवार भाए गेलै. फुफकार छोड़लक- 'पांच सौ लाइब कए देलियह. सबटा चाटि गेलहक आ पांच टका निकालै मे दांती लागै छह !' गुलो फक पड़ि गेल. रिनियाँ हनहनाइत अंगना चलि गेलै.

(सुभाषचन्द्र यादवक उपन्यास 'गुलो' किशुन संकल्प लोक, सुपौल द्वारा प्रकाशित कयल गेल अछि, पोथी मैथिलीक पहिल ऑनलाइन बुक स्टोर Sappymart पर उपलब्ध अछि अहां अपन प्रति ओतय सं कीन सकैत छी)
हमरा चिन्है छहीं ! हम छियै 'गुलो' मंडल~ सुभाषचन्द्र यादव हमरा चिन्है छहीं ! हम छियै 'गुलो' मंडल~ सुभाषचन्द्र यादव Reviewed by बालमुकुन्द on मार्च 02, 2016 Rating: 5

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