यात्रीजी कें स्मरण करैत...



मैथिली साहित्य...खास क' मैथिली कविता मे जखन प्रगतिशील, यथार्थवादी आ आधुनिकता सं लैस रचना संसारक गप्प उठैत अछि तं सभ सं  पहिने मोन मे यात्रीजीक छवि-स्मृति अभरैत अछि । मैथिली कविता मे आधुनिकताक नींव यात्रीजी रखने छलाह। हिनका द्वारा  देव भाषा संस्कृत मे रचित पोथी - लेनिन शतकम आ कृषक शतकमक नामे एहि बातक पुष्टिक लेल पर्याप्त अछि की बाबा सदति नवीनताक पक्षधर रहलाह । हुनका छन्द पर अपूर्व पकड़ि छलनि । बाबा  अपन कविता मे छन्दक शास्त्रीयता सं ओकर लोक प्रचलित रूप मे प्रयोग कएने छथि ।

यात्रीजी अपन नामक संग सेहो बहुत रास प्रयोग कएने छथि ।  हुनक मूल नाओ बैद्यनाथ मिश्र रहनि ।  ओ मैथिली मे पहिने वैदेह आ बाद मे यात्री उपनाम सं रचना केलनि । हिंदी क्षेत्र मे बाबा  , नागार्जुन उपनाम सं ख्याति प्रसिद्ध भेलथि।  ई उपनाम हुनक बौद्ध संसर्ग सॅ जन्मल अछि । बौद्ध दर्शनक सर्वोत्कृष्ट उपाधि त्रिपिटकाचार्य सेहो हुनका प्राप्त छलनि। एतबे नहि उपनाम  नागार्जुन कें सेहो ओ अर्जुन नागा मे बदलने रहथि ।

यात्रीजी कविताक स्वरूप, शिल्प, भाषा , बिषय आदि मे बहुतो तरहक प्रयोग केलनि, जे कालान्तर मे मैथिली काव्य धाराक दशा ओ दिशा बदलि देलक । मुदा ई खेदक गप्प थिक जे ओ आर्थिक विवशताक मादे मैथिली मे कम आ हिन्दी मे बेसी रचलनि । हुनकहि शब्दे - पेट तॅ हिंदिए सं भरैत अछि तें अपन कोढ़-करेज खखोड़ि जे किछु होइए से ओकरे पीड़ी पर चढ़ा रहल छी ।

आइ यात्रीजी सदेह हमरा सभक मध्य  नहि छथि मुदा हुनक स्मृति शेष / रचना संसार सदैव हमरालोकनिक मध्य अमर रहत आ रचनाकारक आगामी पीढ़ीक पथ निर्देशित करैत रहत । 

तत्काल यात्रीजी कें  स्मरण करैत हुनकहि किछु  कविता प्रस्तुत अछि :

जगतारिन


बाॅसक
ओधि
उपाड़ि
करइ छी जारनि...
हमर
दिन
नहि
धूरत की जगतारनि ।

 

अंतिम प्रणाम


हे मातृभूमि ,अंतिम प्रणाम
अहिबातक पातिल फोड़ि-फाड़ि
पहिलुक परिचय के तोड़ि ताड़ि
पुरजन-परिजन सब छोड़ि -छाड़ि
हम जाय रहल छी आन ठाम
माॅ मिथिले ,ई अंतिम प्रणाम ।
दुःखोदधिसॅ संतरण हेतु
चिरविस्मित वस्तुक स्मरण हेतु
सूतल सृष्टिक जागरण हेतु
हम छोडि रहल छी अपन गाम
माॅ मिथिले ई अंतिम प्रणाम ।
कर्मक फल भोगथु बूढ़ बाप
हम टा संतति ,से हुनक पाप
ई जानि हैन्हि जनु मनस्ताप
अनको बिसरथ थिक हमर नाम
माॅ मिथिले, ई अंतिम प्रणाम ।।


भए गेल प्रात


हिम शुभ्र ओससॅ धौत गात
भूपर उतरल नभसॅ प्रभात
सिहकए लागल मलयानिल जे
खोलू कावाड़;
भए गेल प्रात
चों चों चों चों ...
कए रहल मने बगड़ा -बगड़ी
खोतासॅ बहरएबाक ब्योंत
भए गेल प्रात
टुटि गेल निन्न
तइओ देखू हम पड़ले छी
दए रहल मनो उठबाक नोंत
झाॅझनक फाॅकसॅ हुलकि - हुलकि भोरूक इजोत !


युग धर्म


नहि मानइ अछि बात ओहिना अपनो बेटा-नाति
मास मास पर गहन लगइ अछि पल पल पर संकराॅति
बदलि रहल अछि छन छन दुनियाॅ किछु नहि क्यों नहि थीर
भ गेलाह बाबा कपिलेसर आन्हर आर बहीर
सुनतहि नव नचारी बूढ़ाकें उठैत छन्हि खौंत
भरि-भरि ढाकी फाॅकि जाइ छथि भाङक भनहि सुखौंत
शहर-शहरमे फुजल सिनेमा,कियो नहि सुनए पुरान
ककरो नहि चिंता छइ जे खौंझा उठता भगवान
कोना छजत पहिलुक ढाठीपथ आजुक टटका रंङ
अपन महिॅस कुल्हड़िअहि नाथब,के ने कहत अबढंग
खुटिया मिर्जइ नहि सोहाइ छइ पहिरए कोट कमीज
बूड़ि ने कहिअउ,कन्हुआकॅ ताकत बेटा भतीज
कोना बुझब जे पूर्वजलोकनि रहथि वेश बुधिआर
पढुआ कका करब जॅ,नहि हमरासॅ बात-विचार

नवतुरिए आबओ आगाँ..

तीव्रगंधी तरल मोवाइल
क्षणस्पंदी जीवन
एक-एक सेकेंड बान्हल !
स्थायी-संचारी उद्दीपन-आलंबन....
सुनियन्त्रित एक-एक भाव !
परकीय-परकीया सोहाइ छइ ककरा नहि
खंड प्रीतिक सोन्हगर उपायन ?

असहृय नहि कुमारी विधवाक सौभाग्य
सहृय नहि गृही चिरकुमारक दागल ब्रह्मचर्य
सरिपहुँ सभ केओ सर्वतंत्र स्वतंत्र
रोक टोक नहिए कथूक ककरो
रखने रहु, बेर पर आओत काज
आमौटक पुरान धड़िका....
धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष !

पघिलओ नीक जकाँ सनातन आस्था
पाकओ नीक जकाँ चेतन कुम्हारक नबका बासन
युग-सत्यक आबामे....
जूनि करी परिबाहि बूढ़-बहीर कानक
टटका-मन्त्र थीक,
नवतुरिए आबओ आगाँ !!
वैह करत रूढ़िभंजन, आगू मुहें बढ़त वैह....
हमरा लोकनि दिअइ आशीर्वाद निश्छल मोने;
घिचिअइ टा नहि टांग पाछाँ...
ढेकी नहि कूटी अपनहि अमरत्व टाक...।

आन्हर जिनगी

आन्हर जिनगी
सेहंताक ठेंगासँ थाहए
बाट घाट, आँतर-पाँतरकें
खुट खुट खुट खुट....

आन्हर जिनगी
चकुआएल अछि
ठाढ़ भेल अछि
युगसन्धिक अइ चउबट्टी लग
सुनय विवेकक कान पाथिकें
अदगोइ-बदगोइ

आन्हर जिनगी
नांगड़ि आशाकेर कान्ह पर हाथ राखि का’
कोम्हर जाए छएँ ?
ओ गबइत छउ बटगवनी,
तों गुम्म किएक छएँ ?
त’हूँ ध’ ले कोनो भनिता !

आन्हर जिनगी
शान्ति सुन्दरी केर नरम आंगुरक स्पर्शसँ
बिहुँसि रहल अछि!
खंड सफलता केर सलच्छा सिहकी
ओकर गत्र-गत्रमे
टटका स्पंदन भरि देलकइए।
यात्रीजी कें स्मरण करैत... यात्रीजी कें स्मरण करैत... Reviewed by बालमुकुन्द on जनवरी 25, 2015 Rating: 5

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